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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे? ३७७ बतलानेके लिये यह कारिका कितनी रहस्यपूर्ण है, इसे विज्ञ-पाठक स्वय समझ सकते हैं।
साराश इस सब कथनका इतना ही है कि-सुख और दुख दोनो ही, चाहे स्वस्थ हों या परस्थ-अपनेको हो या दूसरोकोकथचित् पुण्यरूप प्रास्रव-बन्धके कारण हैं, विभुद्धिके अंग होनेसे, कथचित् पापरूप मानव-बन्धके कारण हैं, सक्लेशके अग होनेसे, कथचित् पुण्य-पाप उभयरूप प्रास्रव-बन्धके कारण हैं, क्रमार्पित विशुद्धि-सक्लेशके अग होनेसे, कचित् प्रवक्तव्यरूप हैं, सहार्पितविशुद्धि-सक्लेशके अग होनेसे। और विशुद्धि-सक्लेशका अगन होने पर दोनो ही बन्धके कारण नहीं हैं। इस प्रकार नय-विवक्षाको लिए हुए अनेकान्तमार्गसे ही पुण्य-पापकी व्यवस्था ठीक बैठती है-सर्वथा एकान्तपक्षका प्राश्रय लेनेसे नही । एकान्तपक्ष सदोष है, जैसा कि ऊपर बतलाया जाचुका है और इसलिये वह पुण्य-पापका सम्यक् व्यवस्थापक नही हो सकता।