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युगवीर-निबन्धावली अपने 'देवागम' मे ( कारिका ६२ से ६५ तक) दी है वह बड़ी ही मार्मिक तथा रहस्यपूर्ण है । आज वह सब ही यहां पाठकोके सामने रक्खी जाती है। प्रथम पक्षको सदोष ठहराते हुए स्वामीजी लिखते हैं -
पापं ध्र व परे दु खात्पुण्यं च सुखतो यदि ।
अचेतनाऽकषायौ च बध्येयाता निमित्तत ॥ २ ॥ 'यदि परमे दु खोत्पादनसे पापका और सुखोत्पादनसे पुण्यका होना निश्चित है- ऐसा एकान्त माना जाय-तो फिर अचेतन पदार्थ और अक्षायी ( वीतराग ) जीव भी पुण्य-पापसे बँधने चाहिये, क्योकि वे भी दूसरोमे सुख-दुखकी उत्पत्तिके निमित्तकारण होते हैं।'
भावार्थ - जब परमे सुख-दुखका उत्पादन ही पुण्य-पापका एकमात्र कारण है तो फिर दूध-मलाई तथा विष-कण्टकादिक अचेतन पदार्थ, जो दूसरोके सुख-दुखके कारण बनते हैं, पुण्य-पापके बन्धः कर्ता क्यो नही ? परन्तु इन्हे कोई भी पुण्य-पापके बधकर्ता नहीं मानता -- काँटा पैर में चुभकर दूसरेको दुख उत्पन्न करता है, इतने मात्रसे उसे कोई पापी नही कहता और न पाप-फलदायक कर्मपरमाणु ही उससे पाकर चिपटते अथवा बधको प्राप्त होते है। इसी तरह दूध-मलाई बहुतोको आनद प्रदान करते है, परत उनके इस आनदसे दूध-मलाई पुण्यात्मा नही कहे जाते और न उनमे पुण्यफलदायक कर्म-परमाणुओका ऐसा कोई प्रवेश अथवा सयोग ही होता है जिसका फल उन्हे ( दूध-मलाईको) बादको भोगना पडे । इससे उक्त एकान्त सिद्धात स्पष्ट सदोष जान पडता है। __यदि यह कहा जाय कि चेतन ही बधके योग्य होते हैं अचेतन नही, तो फिर कषाय-रहित वीतरागियोंके विषयमें प्रापत्तिको कैसे टाला जायगा? वे भी अनेक प्रकारसे दूसरोंके दुख-सुखके कारण बनते