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समन्तभद्र-विचार-दीपक (४)
पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ? पुण्य पापका उपार्जन कैसे होता है कैसे किसीको पुण्य लगता, पाप चढता अथवा पाप-पुण्यका उसके साथ सम्बन्ध होता है, यह एक भारी समस्या है, जिसको हल करनेका बहुतोने प्रयत्न किया है। अधिकाश विचारकजन इस निश्चय पर पहुंचे हैं और उनकी यह एकान्त धारणा है कि-'दूसरोको दुख देने, दुख पहुँचाने, दुखके साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी तरह दुखका कारण बननेसे नियमत पाप होता है-पापका प्रास्रव-बन्ध होता है, प्रत्युत इसके दूसरोको सुख देने, सुख पहुँचाने, सुखके साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी तरह सुखका कारण बननेसे नियमत पुण्य होता है-पुण्यका प्रास्रव-बन्ध होता है। अपनेको दुख-सुख देने आदिसे पाप-पुण्यके वन्धका कोई सम्बन्ध नहीं है।'
दूसरोंका इस विषयमें यह निश्चय और यह एकान्त धारणा है कि-'अपनेको दुख देने-पहुँचाने प्रादिसे नियमत पुण्योपार्जन और सुख देने आदिसे नियमत पापोपार्जन होता है-दूसरोके दुखसुखका पुण्य-पापके बन्धसे कोई सम्बन्ध नही है।'
स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टिमें ये दोनो ही विचार एव पक्ष निरे ऐकान्तिक होनेसे वस्तुतत्त्व नहीं हैं, और इसलिये उन्होंने इन दोनोको सदोष ठहराते हुए पुण्य-पापकी जो व्यवस्था सूत्ररूपसे