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वीतरागते प्रार्थना क्यों?
३६० सर्दीका संचार प्रपया तदप परिणमन स्वयं हुमा करता है और उसमें उस अग्नि या हिममय पदार्थकी इच्छादिक जेसा कोई कारण नहीं पडता । इच्छा तो स्वयं एक दोष है और वह उस मोहका परिणाम है जिसे स्वय स्वामीजीने उक्त स्तोत्रमें 'अनन्तदोबारायविग्रह' बतलाया है । दोषोंकी शान्ति होजानेसे उसका अस्तित्व ही नही बनता । इसलिये अर्हन्तदेक्मे बिना इच्छा तथा प्रयत्नवाला कर्तृत्व सुघटित है। इसी कतृत्वको लक्ष्यमें रखकर उन्हे 'शान्तिके विधाता' कहा गया है-इच्छा तथा प्रयत्नवाले कर्तृत्वकी दृष्टिसे वे उसके विधाता नहीं हैं। इस तरह कर्तृत्व विषयमें अनेकात चलता है--सर्वथा एकातपक्ष जनशासनमें ग्राह्य ही नहीं है।
यहां प्रसगवश इतना और भी बतला देना उचित जान पडता है कि उक्त पथके तृतीय चरणमें सांसारिक क्लेशो तथा भयोकी शातिमें कारणीभूत होनेकी नो प्रार्थना की गई है वह जैनी प्रार्थनाका मूलरूप है, जिसका और भी स्पष्ट दर्शन नित्यकी प्रार्थनामें प्रयुक्त निम्न प्राचीनतम गाथामे पाया जाता है
दुक्ख-खो कम्म-खम्रो समाहिमरणं च वोहि-लाहो या मम होउ तिजगबंधव । तव जिणवर परण-सरणेण ।।
इसमें जो प्रार्थना की गई है उसका रूप यह है कि-हे त्रिजगतके (निनिमित्त) बन्युजिनदेव । अापके चरण-शरणके प्रसादसे मेरे दुखोंका क्षय, कोका क्षय, समाधिपूर्वक मरण और सम्यम्दर्शनादिकका लाभ होवे। इससे यह प्रार्थना एक प्रकारसे प्रात्मोत्कर्षकी भावना है और इस बातको सूचित करती है कि जिनदेवकी शरण प्राप्त होनेसे-प्रसन्नतापूर्वक चिनदेवके चरणोका पाराधन करनेसे-दुखोका क्षय और कर्मोका क्षयादिक सुख-साध्य होता है। म्ही माव समन्तभद्रकी उस प्रार्थनाका है। इसी भावको लेकर मतित्रवेक स्तुक्तोऽस्तु नाब।(२५) भवतु ममाम मयोपान्तये (११) जेसो दूसरी मी अनेक प्रार्थना की गई हैं। परन्तु येही