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बुगबीर निवाचावली देवगाले हैं और वीतरागदेवमें कर्तृत्व-विषयका बारोप सर्वक असंगत तथा व्यर्थ नहीं है, बल्कि ऊपरके निर्देशानुसार सात बार सुटित है-बे स्वेच्छा-बुद्धि-प्रयत्नादिकी दृष्टिसे का न होते हुए मी निमित्तादिकी दृष्टिसे कर्ता जरूर हैं और इसलिये उनके विषयो अकर्तापनका सर्वथा एकान्तपक्ष पटित नहीं होता, तब उनसे अधिक यक अथवा ऐसी प्रार्थनासोका किया जाना भी असमत नहीं कहा जा सकता,जो उनके सम्पर्क तथा शरणमें प्रानेसे स्वय सफल होबाती है अथवा उपासना एव मचिके द्वारा सहज-साध्य होती हैं।
इस विषयमे स्वामी समन्तभद्रका स्वयभूस्तोत्रगत निम्न वाक्य सास तोरसे ध्यानमे लेने योग्य हैसदोषशान्त्या विहितात्म-शान्तिः शान्तेर्विधाता शरणं गतानम्म् । भूयाद्भव-क्लेश भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य ।
इसमे बतलाया है कि वे 'मगवान शान्तिजिन मेरे शरएब हैंमैं उनकी शरण लेता हूँ-जिन्होने अपने दोषोकी-प्रज्ञान, मोह तथा राग-द्वेष, काम-क्रोधादि विकारोकी शान्ति करके प्रात्मामें परमशान्ति स्थापित की है-पूर्ण सुख-स्वरुप स्वाभाविकी स्थिति प्राप्त की है और इसलिये जो शरणागतोको शान्तिके विधाता हैं -उनमें अपने मात्मप्रभावसे दोषोकी शान्ति करके शान्ति-सुखका संचार करने अथवा उन्हे शान्ति-सुखरूप परिणत करनेमें सहायक एव निमित्तभूत हैं। प्रत ( इस शरणागतिके फलस्वरूप ) शान्तिबिन मेरे ससार-परिभ्रमणका अन्त और सासारिक क्लेको तथा भयोकी समाप्तिमें कारणीभूत हो।'
यहाँ शान्ति-जिनको शरणामतोकी शान्तिका बो विकार (कर्ता) कहा है उसके लिये उनमे किसी इच्छा या तदनुकत प्रकलाके पआरोप की जरूरत नहीं है, वह कार्य उनके 'विहितात्मशान्ति' होनेसे स्वयं ही उस प्रकार हो जाता है जिस प्रकार कि अनिके पास जाने गर्मी और हिमालय मा शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुंचनेसे