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युगवीर-निबन्धावली व्यर्थ नहीं कहा जा सकता-भले ही वे अपने हाथसे सीधा किसीका कोई कार्य न करते हो, मोहनीय कर्मके प्रभावसे उनमें इच्छाका अस्तित्व तक न हो और न किसीको उस कार्यकी प्रेरणा या प्राज्ञा देना ही उनसे बनता हो; क्योकि उनके पुण्यस्मरण, चिन्तन, पूजन, भजन, कीर्तन, स्तवन और आराधनसे जब पापकर्मोका नाश होता है, पुण्यकी वृद्धि और आत्माकी विशुद्धि होती है-जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चूका है- तब फिर कौन कार्य है जो अटका रह जाय ? सभी कार्य सिद्धिको प्राप्त होते है, भक्तजनोकी मनोकामनाएं पूरी होती है और इसलिये उन्हे यही कहना पडता है कि 'हे भगवन् । आपके प्रसादसे मेरा यह कार्य सिद्ध हो गया', जैसे कि रसायनके प्रसादसे प्रारोग्यका प्राप्त होना कहा जाता है।
रसायन औषधि जिस प्रकार अपना सेवन करनेवाले पर प्रसन्न नहीं होती और न इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य ही सिद्ध करती है उसी तरह वीतराग भगवान् भी अपने सेवक पर प्रसन्न नही होते और न प्रसन्नताके फलस्वरूप इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न ही करते हैं । प्रसन्नतापूर्वक सेवन-अाराधनके कारण ही रसायन और वीतरागदेवमे प्रसन्नताका आरोप किया जाता है और यह अलकृत भाषाका कथन है । अन्यथा दोनोका काय वस्तुस्वभावके वशवर्ती, सयोगोकी अनुकूलताको लिये हुए, स्वत होता है-उसमे किसीकी इच्छा-प्रसन्नतादिकी कोई बात नहीं है। ___ यहाँ पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टि से एक बात और प्रकट कर देने की है और वह यह कि, ससारी जीव मनसे, वचनसे व कायसे जो क्रिया करता है उससे प्रात्म प्रदेशोमे कम्पन (हलन-चलन) होकर अव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणुमोका आत्म-प्रवेश होता है, जिसे 'प्रास्रव' कहते है । मन-वचन कायकी यह क्रिया यदि भुम होती है तो उससे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभकर्मका पासव होता है । तदनुसार ही बंध होता है। इस तरह कर्म शुभ-अशुभ