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सेवा-धर्म गये दुख-कष्टोंको भी दूर करनेका प्रयत्न करता है । यही दोनोंमें प्रधान अन्तर है। अहिंसा यदि सुन्दर पुष्प है तो दयाको उसकी सुगध समझना चाहिए।
दयामे सक्रिय परोपकार, दान, वैय्यावृत्य, धर्मोपदेश और दूसरोके कल्याणकी भावनाएं शामिल हैं । अज्ञानसे पीड़ित जनताके हितार्थ विद्यालय-पाठशालाएं खुलवाना, पुस्तकालय-वाचनालय स्थापित करना, रिसर्च इन्स्टीट्यूटोंका-अनुसन्धान प्रधान सस्थानो का - जारी कराना, वैज्ञानिक खोजोको प्रोत्तेजन देना तथा ग्रन्थनिर्माण और व्याख्यानादिके द्वारा प्रज्ञानान्धकारको दूर करनेका प्रय न करना, रोगसे पीडित प्राणियोंके लिए प्रौषधालयो-चिकित्सालयोकी व्यवस्था करना, बेरोजगारी अथवा भूखसे सतप्त मनुष्योके लिए रोजगार-धन्धेका प्रबन्ध करके उनके रोटीके सवालको हल करना मोर कुरीतियो, कुसस्कारो तथा बुरी आदतोसे जर्जरित एव पतनोन्मुख मनुष्य-समाजके सुधारार्थ सभा-सोसाइटियोका कायम करना और उन्हे व्यवस्थितरूपसे चलाना, ये सब उसी दया-प्रधान प्रवृत्तिरूप सेवाधर्मके अङ्ग है। पूज्योकी पूजा-भक्ति-उपासनाके द्वारा अथवा भक्तियोग-पूर्वक जो अपने प्रात्माका उत्कर्ष सिद्ध किया जाता है वह सब भी मुख्यतया प्रवृतिरूम सेवाधर्मका अङ्ग है। __ इस प्रवृत्तिरूप सेवाधर्ममें भी जहाँ तक अपने मन, वचन और कापसे सेवाका सम्बन्ध है वहाँ तक किसी कोड़ी-पेसेकी ज़रूरत नहीं पड़ती-जहाँ सेवाके लिए दूसरे साधनोसे काम लिया जाता है वहां ही उसकी जरूरत पडली है। और इस तरह यह स्पष्ट है कि अधिकाश सेवाधर्मके अनुष्ठानके लिए मनुष्यको टके पैसेकी जरूरत नहीं है। जरूरत है अपनी चित्तवृत्ति और लक्ष्यको शुद्ध करनेकी, जिसके बिना सेवाधर्म बनता ही नही।
इस प्रकार सेवाधर्मका मह सक्षिप्तरूप, विवेचन अथवा विम्वन है, जिसमे सब धोका समावेश हो जाता है।