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वातरागकी पूजा क्यों ?
३५७ लेने पर वह देव नाराज हो जायगा और उसकी नाराजगीसे उस मनुष्य तथा समूचे समाजको किसी देवी कोपका भाजन बनना पड़ेगा, क्योकि ऐसी शका करने पर वह देव वीतराग ही नहीं ठहरेमा--उसके बीतराग होनेसे इनकार करना होगा और उसे भी दूसरे देवी-देवतामोकी तरह रागी-द्वेषी मानना पड़ेगा । इसीसे अक्सर लोग जैनियोंसे कहा करते हैं कि--"जब तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा-उपासनाकी कोई जरूरत नहीं, कर्ता हर्ता न होनेसे वह किसीको कुछ देता-लेता भी नही, तब उसकी पूजावन्दना क्यो की जाती है और उससे क्या नतीजा है ?"
इन सब बातोको लक्ष्यमें रखकर स्वामी समन्तभद्र, जो कि वीतरागदेवोको सबसे अधिक पूजाके योग्य समझते थे और स्वय भी अनेक स्तुति-स्तोत्रों आदिके द्वारा उनकी पूजामे सदा सावधान एव तत्पर रहते थे, अपने स्वयभूस्तोत्र मे लिखते हैं -
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त-चैरे । तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्न पुनाति चित्त दुारताऽखनेभ्य.
अर्थात्-हे भगवन् । पूजा-वन्दनासे आपका कोई प्रयोजन नही है, क्योकि आप वीतरागी हैं--रागका प्रश भी आपके पात्मामें विद्यमान नही है, जिसके कारण किसीकी पूजा-वन्दनासे प्राप प्रसन्न होते । इसी तरह निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नही है--कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस पर आपको जरा भी क्षोभ नही आ सकता, क्योकि आपके आत्मासे वेरभाव-द्वेषाश बिल्कुल निकल गया है-वह उसमे विद्यमान ही नही है-जिससे क्षोम तथा अप्रसन्नतादि कार्योंका उद्भव हो सकता । ऐसी हालतमें निन्दा और स्तुति दोनो ही प्रापके लिये समान हैं-उनसे प्रापका कुछ भी बनता या बिगड़ता नही है । यह सब कुछ ठीक है, परन्तु फिर भी हम जो प्रापकी पूजा-बदनादि करते हैं उसका दूसरा ही कारण है, वह पूजा-वदनादि आपके लिये