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वीतरागकी पूजा क्यों ?
३५९ ग्रात्मनिधिको प्राय: भूले हुए हैं । सिद्धात्मानोंके विकसित गुणों परसे वे श्रात्मगुणोका परिचय प्राप्त करते हैं और फिर उनमें अनुराग बढाकर उन्ही साधनो द्वारा उन गुणोकी प्राप्तिका यत्न करते हैं जिनके द्वारा उन सिद्धात्मानोने किया था । और इसलिये वे सिद्धात्मा वीतरागदेव आत्म-विकासके इच्छुक ससारी श्रात्मानोंके लिये 'आदर्शरूप' होते हैं, श्रात्मगुणोके परिचयादिमे सहायक होनेसे उनके 'उपकारी' होते हैं और उस वक्त तक उनके 'श्राराध्य' रहते हैं जबतक कि उनके आत्मगुण पूर्णरूपसे विकसित न हो जाय । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने "तत स्वनि श्रेयसभावनापरे बुधप्रवेकेजिनशीत लेड्से ( स्व० ५०)" इस वाक्यके द्वारा उन बुधजन श्रेष्ठो तकके लिये वीतरागदेवकी पूजाको आवश्यक बतलाया है जो अपने निश्रेयसकी - प्रात्मविकासको भावनामे सदा सावधान रहते हैं । और एक दूसरे पद्य 'स्तुति स्तोतु' साधो ( स्व ० ११६) मैं बीतरागदेवकी इस पूजा-भक्तिको कुशलपरिणामोकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयो मार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना तक लिखा है। साथ ही उसी स्तोत्रगत नीचेके एक पद्यमे वे, योगबलसे आठो पापमलोको दूर करके ससारमें न पाये जानेवाले ऐसे परमसौख्यको प्राप्त हुए सिद्धात्माका स्मरण करते हुए, अपने लिये तद्र ूप होनेकी स्पष्ट भावना भी करते हैं, जो कि वीतरामदेवकी पूजाउपासनाका सच्चा रूप है
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दुरितमलकलंकमष्टकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन् ।
श्रभवदभत्र सौख्यवान् भवान्भवन्तु ममाऽपि भवोपशान्तये ॥ स्वामी समन्तभद्रके इन सब विचारोसे यह भले प्रकार स्पष्ट होजाता है कि बीतरागदेवकी उपासना क्यो की जाती है और उसका करना कितना अधिक प्रावश्यक है ।