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स्व-पर-वेरी काल अनुमको, लोक-परलोक तथा बध-मोक्षादिककी व्यवस्था नही बन सकती । इस अर्थको अष्टसहस्री-जैसे टीका-ग्रन्थोंमें कुछ विस्तारके साथ खोला गया है। बाकी एकान्तवादियों की मुख्य मुख्य कोटियोंका वर्णन करते हुए उनके सिद्धान्तोको दूषित ठहराकर उन्हें स्व-परबेरी सिद्ध करने और अनेकान्तको स्व-पर-हितकारी सम्यक् सिद्धाम्तके रूपमें प्रतिष्ठित करनेका कार्य स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अथकी अगली कारिकाप्रोमें सूत्ररूपसे किया है। अन्धकी कुल कारिकाएँ (श्लोक) ११४ हैं, जिनपर प्राचार्य श्री अकलंकादेवने 'अष्टशती' नामकी आठसौ श्लोक-जितमी वृत्ति लिखी है, जो बहुत ही मूढसूत्रोमे है, और फिर इस वृत्तिको साथमें लेकर श्री विद्यानन्दाचार्यने 'अष्टसहस्री' टीका लिखी है, जो पाठ हजार श्लोक-परिमाण है और जिसमें मूलग्रन्थके आशयको खोलनेका भारी प्रयत्न किया गया है । यह अष्टसहस्री भी बहुत कठिन है, इसके कठिन पदोको समझनेके लिये इसपर पाठ हजार श्लोक-जितना एक सस्कृत टिप्पण भी बना हुआ है, फिर भी अपने विषयको पूरी तौरसे समझनेके लिये यह अभी तक 'कष्टसहस्री' ही बनी हुई है । और शायद यही वजह है कि इसका अब तक हिन्दी अनुवाद नहीं हो सका। ऐसी हालतमें पाठक समझ सकते है कि स्वामी समन्तभद्रका मूल 'देवागम' ग्रन्थ कितना अधिक अर्थगौरवको लिये हुए है । अकलकदेवने तो उसे 'सम्पूर्ण पदार्थतत्वोको अपना विषय करनेवाला स्याद्वादरूपी पुण्योदधितीर्थ' लिखा है । इसलिये मेरे जैसे अल्पज्ञो-द्वारा समन्तभद्रके विचारोंकी व्याख्या उनको स्पर्श करनेके सिवाय और क्या हो सकती है ? इसीसे मेरा यह प्रयत्न भी साधारण पाठकोंके लिये है-विशेसज्ञोंके लिये नहीं। प्रस्तु, इस प्रासगिक निवेदनके बाद अब मैं पुन' प्रकृत विषय पर आता हूँ और उसको सक्षेपमे ही साधारण जनताके लिये कुछ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ।
वास्तवमें प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है-- उसमें अनेक अन्त