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युगवोर-निबन्धावलो धर्म, गुण-स्वभाव, अंग अथवा अंश हैं । जो मनुष्य किसी भी वस्तु. को एक तरफसे देखता है-उसके एक ही अन्त-धर्म अथवा गुरणस्वभाव पर दृष्टि डालता है-वह उसका सम्यग्दृष्टा । उसे ठीक तौरसे देखने-पहचाननेवाला) नहीं कहला सकता । सम्यग्दृष्टा होनेके लिये उसे उस वस्तुको सब ओरसे देखना चाहिये और उसके सब अन्तो-अगो-धर्मों अथवा स्वभावो पर नज़र डालनी चाहिये । सिक्केके एक ही मुखको देखकर सिक्केका निर्णय करनेवाला उस सिक्केको दूसरे मुखसे पडा देखकर वह सिक्का नही समझता और इसलिये धोखा खाता है । इसीसे अनेकान्तदृष्टिको सम्यग्दृष्टि और एकान्तदृष्टिको मिथ्यादृष्टि कहा है।
जो मनुष्य किसी वस्तुके एक हो अन्त, अग, धर्म अथवा गुणस्वभावको देखकर उसे उस ही स्वरूप मानता है--दूसरे रूप स्वीकार नही करता--और इस तरह अपनी एकान्तधारणा बना लेता है और उसे ही जैसे-तैसे पुष्ट किया करता है, उसको 'एकान्त-ग्रहरक्त', एकातपक्षपाती अथवा सर्वथा एकान्तवादी कहते हैं। ऐसे मनुष्य हाथीके स्वरूपका विधान करनेवाले जन्मान्ध-पुरुषो की तरह आपसमें लड़ते-झगडते हैं और एक दूसरेसे शत्रुता धारण करके जहाँ परके वैरी बनते हैं वहां अपनेको हाथोके विषयमे अज्ञानी रखकर अपना भी अहित साधन करनेवाले तथा कभी भी हाथीसे हाथोका काम लेनेमें समर्थ न हो सकनेवाले उन जन्मान्धोकी तरह, अपनेको वस्तुस्वरूपसे अनभिज्ञ रखकर, अपना भी अहित साधन करते हैं और अपनी मान्यताको छोडे अथवा उसकी उपेक्षा किये बिना कभी भी उस वस्तुसे उस वस्तुका ठीक काम लेनेमें
१ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्यय । तत सर्व मुषोक्तं स्यात्तदयुक्त स्वघातत ।।
-स्वयम्भूस्तोत्रे, समन्तभा
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