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स्व-पर-वैरी कौन? समर्थ नही हो सकते, और ठीक काम लेनेके लिये मान्यताको छोडने अथवा उसकी उपेक्षा करने पर स्वसिद्धात-विरोधी ठहरते हैं, इस तरह दोनो ही प्रकारसे वे अपने भी वैरी होते हैं । नीचे एक उदाहरण-द्वारा इस बातको और भी स्पष्ट करके बतलाया जाता है
एक मनुष्य किसी वैद्यको एक रोगी पर कुचलेका प्रयोग करता हुमा देखता है और यह कहते हुए भी सुनता है कि 'कुचला जीवनदाता है, रोगको नशाता है और जीवनी शक्तिको बढाता है । साथ ही, वह यह भी अनुभव करता है कि वह रोगी कुचलेके खानेसे अच्छा तन्दुरुस्त तथा हृष्ट-पुष्ट हो गया। इस परसे वह अपनी यह एकान्त धारणा बना लेता है कि 'कुचला जीवनदाता है, रोग नशाता है और जीवनी शक्तिको बढाकर मनुष्यको हृष्ट-पुष्ट बनाता है' । उसे मालूम नहीं कि कुचलेमें मारनेका-जीवनको नष्ट कर देनेका--भी गुण है और उसका प्रयोग सब रोगो तथा सब अवस्थानोमे समानरूपसे नहीं किया जा सकता, न उसे मात्राकी ठीक खबर है, और न यही पता है कि वह वेद्य भी कुचलेके दूसरे मारक गुणसे परिचित था, और इसलिये जब वह उसे जीवनी शक्तिको बढानेके काममे लाता था तब वह दूसरी दवाइयोंके साथमे उसका प्रयोग करके उसकी मारक शक्तिको दबा देता था अथवा उसे उन जीव-जन्तमोके घातके काममे लेता था जो रोगीके शरीरमे जीवनी शक्तिको नष्ट कर रहे हो । और इसलिये वह मनुष्य अपनी उस एकान्त-धारणाके अनुसार अनेक रोगियोको कुचला देता है तथा जल्दी अच्छा करनेकी धुनमे अधिक मात्रामें भी दे देता है। नतीजा यह होता है कि वे रोगी मर जाते हैं या अधिक कष्ट तथा वेदना उठाते हैं और वह मनुष्य कुचलेका ठीक प्रयोग न बानकर उसका मिथ्या प्रयोग करनेके कारण दह पाता है, तथा कभी स्वयं कुचला खाकर अपनी प्राण-हानि भी कर डालता है । इस तरह कुचलेके विषयमें एकान्त अाग्रह रखनेवाना जिस प्रकार