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होलीका त्यौहार और उसका सुधार भारतके त्योहारोमें होली भी एक देश-व्यापी मुख्य त्यौहार है। अनेक धर्म-समाजोमे इसकी जो कथाएँ प्रचलित हैं वे अपनी अपनी साम्प्रदायिक दृष्टिको लेकर भिन्न भिन्न पाई जाती हैं । यहाँ पर उन सबके विचारका अवसर नहीं है । होलीकी कथाका मूलरूप कुछ भी क्यो न रहा हो, परन्तु यह त्यौहार अपने स्वरूपपरसे समता
और स्वतत्रताका एक प्रतीक जान पडता है, अथवा इसे सार्वजनिक हंसी-खुशी एव प्रसन्न रहनेके अभ्यासका देशव्यापी सक्रिय-अनुष्ठान कहना चाहिये।
इस अवसर पर हर एकको बोलने, मनका भाव व्यक्त करने, स्वाग-तमाशो तथा नृत्य-गानादिके रूपमें यथेष्ट चेष्टाएँ करने,प्रानन्द मनाने और मानाऽपमानका खयाल छोडकर-बडाई-छोटाई अथवा ऊंचता-नीचताकी कल्पना-जन्य व्यर्थका सकोच त्यागकर-एक दूसरेके सम्पर्कमे आनेकी स्वतत्रता होती है। साथ ही, किसीके भी रग डालने, धूल उडाने, हंसी-मजाक करने तथा अप्रिय चेष्टाएं करने पादिको स्वेच्छापूर्वक खुशीसे सहन किया जाता है-अपनी तौहीनः (मानहानि ) आदि समझकर उस पर क्रोधका भाव नही लाया जाता, न अपनी पोजीशनके बिगडनेका कोई खयाल ही सताता है, पौर यो एक प्रकारसे समता-सहनशीलताका अभ्यास किया जाता