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युगबीर-निबन्धावली संकल्प्य कल्पवृक्षस्य चिन्त्य चिंतामणेरपि ।
असकल्प्यमसचिन्त्यं फल धर्मादयाप्यते ॥२२॥ 'फलके प्रदानमे कल्पवृक्ष सकल्पकी और चिन्तामणि चिन्ताकी अपेक्षा रखता है-- कल्पवृक्ष बिना सकल्प किये और चिन्तामणि बिना चिन्ता किये फल नही देता, परन्तु धर्म वैसी कोई अपेक्षा नही रखता-वह बिना सकल्प किये और बिना चिन्ता किये ही फल प्रदान करता है।'
जब धर्म स्वय ही फल देता है और फल देनेमे कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणिकी शक्तिको भी मात (परास्त ) करता है, तब फल प्राप्तिके लिए इच्छाएँ करके -निदान बाधकर-अपने प्रात्माको व्यर्थ ही सक्लेशित और आकूलित करनेकी क्या ज़रूरत है ? ऐसा करनेसे तो उलटा फल-प्राप्तिके मार्गमे काँटे बोए जाते हैं, क्योकि इच्छा फल-प्राप्तिका साधन न होकर उसमें बाधक हैं । __इसमें सदेह नहीं कि धर्म-साधनसे सब सुख प्राप्त होते हैं, परन्तु तमी तो जब धर्मसाधनमें विवेकसे काम लिया जाय । अन्यथा, क्रियाके-बाह्यधर्माचरणके समान होने पर भी एकको बन्ध फल, दूसरेको मोक्षफल अथवा एकको पुण्यफल और दूसरेको पापफल, क्यो मिलता है ? देखिये, कर्मफलकी इस विचित्रताके विषयमें श्रीशुभचन्द्राचार्य ज्ञानारर्णवमें क्या लिखते हैं
बत्र बालरचरस्यस्मिन्पथि तत्रैव पडितः ।
बाल स्वमपि बध्नाति मुच्यते तश्वविद्ध्वम् ।।७२१॥ 'जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसी पर ज्ञानी । दोनोका धर्माचरण समान होने पर भी अज्ञानी अविवेकके कारण कर्म बांधता है और शानी विवेक-द्वारा कर्म-बन्धनसे छूट जाता है।' शानावके निम्न श्लोकमें भी इसी बातको पुष्ट किया गया है
वेष्टयत्यात्मनात्मानमानी कर्मबन्धनः । विज्ञानी मोषवत्येव प्रदः समयान्तरे ७१४॥