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युगवीर - निबन्धावली
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कुछ भी वास्तविक फल नही होता ।
महात्मा गाँधीजी ने कई बार ऐसे लोगोको लक्ष्य करके कहा है कि 'वे मेरे मुंह पर थूकें तो अच्छा, जो भारतीय होकर भी स्वदेशी वस्त्र नही पहनते और सिरसे पैर तक विदेशी वस्त्रोको धारण किये हुए मेरी जय बोलते है ।' ऐसे लोग जिस प्रकार गांधीजीके भक्त अथवा सेवक नही कहे जाते बल्कि मज़ाक उड़ानेवाले समझे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग अपने पूज्य महापुरुषोके अनुकूल नाचररण नही करते - अनुकूल आचरणकी भावना तक नही रखतेखुशीसे विरुद्धाचरण करते हैं और उस कुत्सित श्रचरणको करते हुए ही पूज्य पुरुषकी वदनादि क्रिया करते तथा जय बोलते है, उन्हे उस महापुरुषका सेवक अथवा उपासक नही कहा जा सकता - वे भी उस पूज्य व्यक्तिका उपहास करने-करानेवाले ही होते हैं, अथवा यह कहना होगा कि वे अपने उस श्राचरणके लिए जड़ मशीनोकी तरह स्वाधीन नही हैं और ऐसे पराधीनोका कोई धर्म नही होता । सेवाधर्मके लिये स्वेच्छापूर्वक कार्यका होना आवश्यक है, क्योकि स्वपरहित साधनकी दृष्टिसे स्वेच्छापूर्वक अपना कर्तव्य समझकर जो निष्काम कर्म अथवा कर्म त्याग किया जाता है वह सच्चा सेवाधर्म है ।
जब पूज्य महात्मानोकी सेवाके लिये गरीबोकी - दीन-दुखियोकी, पीडितो - पतितोकी, असहायो- असमर्थोकी, प्रज्ञो और पथभ्रष्टोकी सेवा अनिवार्य है - उस सेवाका प्रधान अग है, विना इसके वह बनती ही नही - तब यह नही कहा जा सकता और न कहना उचित ही होगा कि "छोटों - प्रसमर्थों अथवा दीन-दुखियो प्रादिकी सेवामे क्या घरा है ?" यह सेवा तो अहकारादि दोषोको दूर करके आत्माको ऊँचा उठानेवाली है, तद्गुण - लब्धिके उद्देश्यको पूरा करनेवाली है और हर तरह श्रात्मविकासमें सहायक है, इसलिये परमधर्म हू और सेवाधर्मका प्रधान अंग है । जिस धर्मके अनुष्ठानसे अपना कुछ भी आत्मलाभ न होता हो वह तो वास्तवमें धर्म ही नहीं है ।