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सेवा-धर्म करनेकी धुनमें अपराध भी कुछ कम नहीं करते हैं। इस तरह हमारा प्रात्मा परकृत-उपकार-भार और स्वकृत-अपराध-भारसे बराबर दबा रहता है। इन भारोंके हलका होनेके साथ साथ ही प्रारमाके विकासका सम्बन्ध है। लोकसेवासे यह भार हलका होकर प्रात्मविकासकी सिद्धि होती है। इसीसे सेवाको परमधर्म कहा गया है
और वह इतना परम-गहन हे कि कभी-कभी तो योगियोके द्वारा भी अगम्य हो जाता है -उनकी बुद्धि चकरा जाती है, वे भी उसके सामने घुटने टेक देते हैं और गहरी समाधिमे उतर कर उसके रहस्य को खोजनेका प्रयत्न करते है। लोकसेवाके लिये अपना सर्वस्व अर्परस कर देने पर भी उन्हे बहुधा यह कहते हुए सुनते है"हा दुहकर्य हा दुट्ठ भासिय चितिय च हा दुट्ठ !
अतो अतो डउझम्मि पच्छत्तावेण वेयंतो।" मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिमे जहाँ थोडीसा भी प्रमत्तता, असावधानी अथवा त्रुटि लोकहितके विरुद्ध दीख पडती है वहाँ उसी समय उक्त प्रकारके उद्गार उनके मुहसे निकल पडते हैं और वे उनके द्वारा पश्चाताप करते हुए अपने सूक्ष्म अपराधोका भी नित्य प्रायश्चित्त किया करते हैं । इसीसे यह प्रसिद्ध है कि
___ 'सेवाधर्मः परमगहना योगिनामप्यगम्य ।"
सेवाधर्मकी साधनामे, नि सन्देह, बडी सावधानीकी जरूरत है और उसके लिये बहुत कुछ आत्मबलि-अपने लौकिक स्वार्थोकी माहुति-देनी पडती है। पूर्णसावधानी ही पूर्णसिद्धिकी जननी है, धर्मकी पूर्णसिद्धि ही पूर्ण आत्मविकासके लिये गारंटी है और यह प्रात्मविकास ही सेवाधर्मका प्रधान लक्ष्य है,उद्देश्य है अथवा ध्येय है ।
मनुष्यका लक्ष्य जब तक शुद्ध नहीं होता तब तक सेवाधर्म उसे कुछ कठिन और कष्टकर जरूर प्रतीत होता है, वह सेवा करके अपना अहसान बताता है, प्रतिसेवाकी-प्रत्युपकारकी-वाँछा करता है प्रथका अपनी वथा दूसरोंकी सेवाको मापतौल किया करता