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युगवीर-निबन्धावली । अहित जरूर कर लेते हैं-जब कि जडमशीने वैसा नही कर सकती। इसी यात्रिक चारित्रके भुलावेमे पडकर हम अक्सर भूले रहते है और यह समझते रहते हैं कि हमने धर्मका अनुष्ठान कर लिया । इसी तरह करोडो जन्म निकल जाते हैं और करोडो वर्षकी बाल-तपस्यासे भी उन कर्मोका नाश नहीं हो पाता, जिन्हे एक ज्ञानी पुरुष त्रियोगके ससाधन-पूर्वक क्षणमात्रमे नाश कर डालता है।
इस विषयमे स्वामी कार्तिकेयने, अपने अनुप्रेक्षा ग्रन्थमे, कितना ही प्रकाश डाला है । उसके निम्न वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है :
कन्म पुण्ण पाव हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा । मदकमाया मच्छा तिबकसाया असच्छा हु ॥ जीवो वि हवइ पाव अइतिञ्च कमायपरिणदो णिच्च । जीबो हवेइ पुण्ण उवसमभावेण सजुत्तो । जोअहिलसेदि पुण्णं सकसानोविसयसोक्खतबहाए । दूरे तस्म विमोही विसोहिमूलाणि पुरणाणि ।। पुरणासएण पुएणे जदो णिरीहस्स पुण्णसपत्ती । इय जारिणऊण जइणो पुण्णे वि म प्रायरं कुरणह ।। पुरण बधदि जीवो मंदकसाहिं परिणदो सतो। तम्हा मदकसाया हेऊ पुण्णस्स एहि वछा ॥
गाथा ६०, १६०, ४१०-४१२ इन गाथानोमे बतलाया है कि-'पुण्यकर्मका हेतु स्वच्छ (शुभ) परिणाम है और पापकर्मका हेतु अस्वच्छ (अशुभ या अशुद्ध ) परिणाम । मदकषायरूप परिणामोंको स्वच्छ परिणाम और तीव्रकषायरूप परिणामोको अस्वच्छ परिणाम करते हैं । जो जीव अतितीव्र-कषायसे परिणत होता है, वह पापी होता है और जो उपशमभावसे-कषायकी मंदतासे युक्त रहता है वह पुण्या