________________
सेवा-धर्म
करना जो उपकारक हो 'सेवा-धर्म' कहलाता है।
'मेरे द्वारा किसी जीवको कष्ट अथवा हानि न पहुंचे, मैं सावद्ययोगसे विरक्त होता हूँ,' लोकसेवाकी ऐसी भावनाके बिना अहिंसाधर्म कुछ भी नहीं रहता; और 'मैं दूसरोंका दुख-कष्ट दूर करनेमे कैसे प्रवृत्त हूँ' इस सेवा भावनाको यदि दया-धर्मसे निकाल दिया जाय तो फिर वह क्या अवशिष्ट रहेगा? इसे सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इसी तरह दूसरे धर्मोका हाल है। सेवाधर्मकी भावनाको निकाल देनेसे वे सब थोये और निर्जीव हो जाते हैं। सेवाधर्म ही उन सबमे, अपनी मात्राके अनुसार, प्राणप्रतिष्ठा करनेवाला है। इसलिये सेवाधर्मका महत्व बहुत ही बढ़ा चढ़ा है और वह एक प्रकारसे अवर्णनीय है । अहिसादिक सब धर्म उसके अग अथवा प्रकार है और वह सबमें व्यापक है। ईश्वरादिककी पूजा-भक्ति अथवा उपासना भी उसीमे शामिल ( गभित) है, जो कि अपने पूज्य एव उपकारी पुरुषोके प्रति किये जानेवाले अपने कर्तव्यके पालनादिस्वरूप होती है । इसीसे उसको 'देवसेवा' भी कहा गया है। किसी देव अथवा धर्म-प्रवर्तकके गुणोका कीर्तन करना, उसके शासनको स्वय मानना, सदुपदेशको अपने जीवनमे उतारना और शासनका प्रचार करना, यह सब उस देव अथवा धर्म-प्रवर्तककी सेवा है और इसके द्वारा अपनी तथा अन्य प्राणियोकी जो सेवा होती है वह सब इससे भिन्न दूसरी आत्मसेवा अथवा लोकसेवा है। इस तरह एक सेवामे दूसरी सेवाएं भी शामिल होती हैं।
स्वामी समन्तभद्रने अपने इष्टदेव भगवान महावीरके विषयमे अपनी सेवाप्रोका और अपनेको उनकी फलप्राप्तिका जो उल्लेख एक पद्यमे किया है वह पाठकोंके जानने योग्य है और उससे उन्हे देवसेवाके कुछ प्रकारोका बोध होगा और साथ ही यह भी मालूम होगा कि सच्चे हृदयसे और पूर्ण तन्मयताके साथ की हुई वीर-प्रभुकी सेवा कैसे उत्तम फलको फलती है । इसीसे उस पद्यको उनके 'स्तुति