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ज्ञानी-विवेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि किन भावोंसे पुण्य बंधता है-किनसे पाप और किनसे दोनोका बन्ध नहीं होता? स्वच्छ, शुभ तथा शुद्ध भाव किसे कहते हैं ? और अस्वच्छ, अशुद्ध तथा अशुभ भाव किसका नाम है ? सासारिक विषय-सौख्यकी तृष्णा अथवा तीवकषायके वशीभूत होकर जो पुण्य-कर्म करना चाहता है वह वास्तवमे पुण्यकर्मका सम्पादन कर सकता है या कि नहीं? और ऐसी इच्छा धर्मकी साधक है या बाधक ? वह खूब समझता है कि सकामधर्मसाधन मोह-क्षोभादिसे घिरा रहनेके कारण धर्मकी कोटिसे निकल जाता है, धर्म वस्तुका स्वभाव होता है और इसलिये कोई भी विभाव परिणति धर्मका स्थान नहीं ले सकती। इसीसे वह अपनी धार्मिक क्रियानोंमे तद्र पभावकी योजना-द्वारा प्रारणका सचार करके उन्हे सार्थक और सफल बनाता है । ऐसे ही विवेकी जनोंके द्वारा अनुष्ठित धर्मको सब-सुखका कारण बतलाया है। विवेककी पुट बिना अथवा उसके सहयोगके प्रभावमे मात्र कुछ क्रियाओंके अनुष्ठानका नाम ही धर्म नही है। ऐसी क्रियाएँ तो जड मशीने भी कर सकती हैं और कुछ करती हुई देखी भी जाती हैं-फोनोग्राफके कितने ही रिकार्ड खूब भक्ति-रसके भरे हुए गाने तथा भजन गाते हैं
और शास्त्र पढते हुए भी देखनेमे आते है। और भी जडमशीनोसे आप जो चाहे धर्मकी बाह्य क्रियाएँ करा सकते है। इन सब क्रियाओको करके जड़मशीन जिस प्रकार धर्मात्मा नहीं बन सकतीं और न धर्मके फलकोही पा सकती है, उसी प्रकार अविवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके विना धर्मकी कुछ क्रियाएँ कर लेने मात्रसे ही कोई धर्मात्मा नहीं बन जाता और न धमके फलको ही पा सकता है। ऐसे अविवेकी मनुष्यो और जडमशीनोमे कोई विशेष अन्तर नही होताउनकी क्रियाओंकों सम्यक्चारित्र न कहकर 'यात्रिक चारित्र' कहना चाहिये । हो, जड़ मशीनोकी अपेक्षा ऐसे मनुष्योंमें मिथ्याज्ञान तथा मोहकी विशेषता होने के कारण वे उसके द्वारा पाप-बन्ध करके अपना