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सकाम-धर्मसाधन
३२१ इससे विवेक-पूर्वक आचरणका कितना बडा माहात्म्य है उसे बतलानेकी अधिक ज़रूरत नहीं रहती।
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, अपने प्रवचनसारके चारित्राधिकारमें, इसी विवेकका सम्यग्ज्ञानका-माहात्म्य वर्णन करते हुए बहुत स्पष्ट शब्दोमें लिखा है :
ज अराणाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं।
तणाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥३८॥ अर्थात्-अज्ञानी-अविवेकी मनुष्य जिस अथवा जितने ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूहको शत-सहस्र-कोटि-भवोंमे-करोडो जन्म लेकर-क्षय करता है उस अथवा उतने कर्म-समूहको ज्ञानी-विवेकी मनुष्य मन-वचन-कायकी क्रियाका निरोध कर अथवा उसे स्वाधीन कर स्वरूपमें लीन हुआ उच्छवासमात्रमें-लीलामात्रमे-नाश कर डालता है।
इससे अधिक विवेकका माहात्म्य और क्या हो सकता है ? यह विवेक ही चारित्रको 'सम्यक्चारित्र' बनाता है और ससार-परिभ्रमरण एवं उसके दुख-कष्टोंसे मुक्ति दिलाता है। विवेकके बिना चारित्र मिथ्याचारित्र है, कोरा कायक्लेश है और वह ससार-परिभ्रमण तथा दुख-परम्पराका ही कारण है। इसीसे विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके अनन्तर चारित्रका पाराधन बतलाया गया है, जैसा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्यके निम्न वाक्यसे प्रगट है.
न हि सम्यग्व्यपदेश चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्त चारित्राराधनं तस्मात् ।।३८।।
-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय अर्थात्-प्रज्ञानपूर्वक-विवेकको साथमे न लेकर-दूसरोंकी देखा देखी अथवा कहने-सुनने मात्रसे-जो चारित्रका अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यकुचारित्र' नाम नहीं पाता-उसे 'सम्यक्चारित्र' नही कहते । इसीसे ( भागममें ) सम्यग्ज्ञानके अनन्तर-विवेक हो