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सकाम-धर्मसाधन लौकिक-फलकी इच्छानोको लेकर जो धर्मसाधन किया जाता है उसे 'सकाम-धर्मसाधन' कहते हैं और जो धर्म वैसी इच्छाप्रोको साथमें न लेकर, मात्र आत्मीय-कर्तव्य समझ कर किया जाता है उसका नाम 'निष्काम-धर्मसाधन है । निष्काम-धर्मसाधन ही वास्तवमें धर्मसाधन है और वही वास्तविक फलको फलता है। सकाम-धर्मसाधन धर्मको विकृत करता है, सदोष बनाता है और उससे ययेष्ट धर्म-फलकी प्राप्ति नही हो सकती । प्रत्युत इसके, अधर्मकी और कभी कभी घोर-पाप-फलकी भी प्राप्ति होती है। जो लोग धर्मके वास्तविक स्वरूप और उसकी शक्तिसे परिचित नही, जिनके अन्दर धैर्य नहीं, श्रद्धा नही, जो निर्बल है, कमजोर हैं, उतावले हैं और जिन्हे धर्मके फल पर पूरा विश्वास नही,ऐसे लोग ही फल-प्राप्तिमे अपनी इच्छाकी टागे अडा कर धर्मको अपना कार्य करने नहीं देते-उसे पगु और बेकार बना देते हैं, और फिर यह कहते हुए नहीं लजाते कि धर्म-साधनसे कुछ भी फलकी प्राप्ति नहीं हुई। ऐसे लोगोके समाधानार्थ-उन्हे उनकी भूलका परिज्ञान करानेके लिए ही- यह निबन्ध लिखा जाता है, और इसमे प्राचार्यवाक्योके द्वारा ही विषयको स्पष्ट किया जाता है।
श्रीगुरणभद्राचार्य अपने 'प्रात्मानुशासन' ग्रन्थों लिखते हैं