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महावीरकी तीर्थ प्रवर्तन-तिथिका महत्व
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रखती हैं। क्योंकि दूसरी तिथिया जब व्यक्तिविशेषके उत्कर्षादिसे सम्बन्ध रखती हैं तब यह तिथि पीडित, पतित और मार्गच्युत जनताके उत्थान एवं कल्याणके साथ सीधा सम्बन्ध रखती है, और इसलिये अपने हितमें सावधान कृतज्ञ जनताके द्वारा खास तौरसे स्मरण रखने तथा महत्व दिये जाने योग्य है । परन्तु खेद है कि आज हम अपने कल्याणका सूत्रपात करनेवाली उस पावन तिथिको प्राय बिल्कुल ही भुला बैठे हैं । हमे यह भी मालूम नही कि जिस तीर्थ- प्रवर्तन के कारण हम म० महावीरको तीर्थंकर मानकर पूजते हैं वह तीर्थप्रवृत्ति अथवा तीर्थोत्पत्ति किस दिन हुई थी । फिर उस की स्मृत्तिमें कोई शुभकृत्य करना अथवा किसी उत्सवादिके रूपमे वह पुण्यदिवस मनाना तो दूरकी बात है । अत प्राज इस लेख - द्वारा मैं अपने भाईयोका ध्यान उनके इस पवित्र कर्तव्यकी श्रोर श्राकर्षित करता है ।
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'धवल' नामक सिद्धान्त ग्रन्थमे, जो अभी तक अलभ्य श्रीर दुष्प्राप्य था, उस पुण्यतिथिका उल्लेख निम्न प्रकारने पाया जाता है
वासस्स पढम मासे पढमे पक्खम्मि साबणे बहुले । पाविद पुदिवसेतित्युत्पत्ती दु श्रभिजिहि ॥
इस गाथामें साफ तौरसे भ० महावीरके तीर्थकी उत्पत्ति श्रावरण कृष्णा प्रतिपदाको पूर्वाहके समय अभिजित नक्षत्र मे बतलाई है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि वह श्रावरणका महीना वर्षका पहला महीना था और वह कृष्ण पक्ष वर्षका पहला पक्ष था, जिससे एक बड़े ही महत्वका ऐतिहासिक तत्व प्रकाशमें प्राता है, और वह यह कि महावीर के समय में यहाँ वर्षका प्रारम्भ श्रावरणके महीने तथा कृष्णापासे होता था -- विक्रमादि संवतोकी तरह किसी दूसरे महीने अथवा शुक्लपक्षसे नहीं होता था । और इससे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि ग्राजसे कोई ढाई हजार वर्ष पहले निर्वारण