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युगवीर-निबन्धाक्ली प्रयोजनको लेकर-कोई दुनियावी ग़र्ज साधनेके लिये-यदि क्षमा, मार्दव-पार्जव-सत्य-शौच-सयम-तप-त्याग-आकिचन्य-ब्रह्मचर्य इन दश धर्मोमेंसे किसी भी धर्मका अनुष्ठान किया जाता है तो वह अनुष्ठान धर्मकी कोटिसे निकल जाता है। ऐसे सकाम-धर्मसाधनको वास्तवमें धर्मसाधन ही नहीं कहते । धर्मसाधन तो स्वरूपसिद्धि अथवा आत्मविकासके लिये प्रात्मीय कर्तव्य समझकर किया जाता है, और इसलिये वह निष्काम-धर्मसाधन ही हो सकता है।
इस प्रकार सकामधर्मसाधनके निषेधमे आगमका स्पष्ट विधान और पूज्य आचार्योंकी खुली प्राज्ञाएँ होते हुए भी खेद है कि हम आज-कल अधिकाशमे सकाम-धर्मसाधनकी ओर ही प्रवृत्त हो रहे हैं। हमारी पूजा-भक्ति उपासना, स्तुति-वन्दना-प्रार्थना, जप तपदान और सयमादिकका सारा लक्ष लौकिक फलोकी प्राप्ति ही रहता है-कोई उसे करके धन-धान्यकी वृद्धि चाहता है, तो कोई पुत्रकी सप्राप्ति । कोई रोग दूर करनेकी इच्छा रखता है, तो . कोई शरीरमे बल लानेकी । कोई मुकद्दमेमे विजय लाभके लिये उसका अनुष्ठान करता है, तो कोई अपने शत्रुको परास्त करनेके लिये । कोई उसके द्वारा किसी ऋद्धि-सिद्धिकी साधनामे व्यग्र है, तो कोई दूसरे लौकिक कार्योंको सफल बनानेकी धुनमे मस्त । कोई इस लोकके सुखोको चाहता है, तो कोई परलोकमे स्वर्गादिकोके सुखोकी अभिलाषा रखता है । और कोई-कोई तो तृष्णाके वशीभूत होकर यहाँ तक अपना विवेक खो बैठता है कि श्रीवीतराग भगवानको भी रिश्वत (घूस) देने लगता है- उनसे कहने लगता है कि हे भगवन् । आपकी कृपासे यदि मेरा अमुक कार्य सिद्ध हो जाएगा तो मैं आपकी पूजा करूंगा, सिद्धचक्रका पाठ था'गा, छत्र-जूवरादि भेट करूंगा, रथ-यात्रा निकलवाऊँगा, गज-रथ चलवाऊँगा अथवा मन्दिर बनवा दूंगा ।। ये सब धर्मकी विडम्बनाएं हैं । इस प्रकारकी विडम्बनामोंसे अपनेको धर्मका कोई लाभ नहीं होता और न आत्म