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'युगवीर-निबन्धाक्लो पुण्यानुष्ठानजातैरभिनषति पदं यजिनेन्द्रामराणां, यद्वा तैरेव वाछत्यहितकुलकुजच्छेदमस्यन्तकोपात । पूजा-सत्कार-लाभ-प्रतिकमथवा याचते यद्विकल्प स्यानातं तनिदानप्रभवमिह नृणां दु खदावोप्रधाम ॥
अर्थात्--अनेक प्रकारके पुण्यानुष्ठानोको-धर्म कृत्योको-करके जो मनुष्य तीर्थंकरपद तथा दूसरे देवोंके किमी पदकी इच्छा करता है अथवा कुपित हुआ उन्ही पुण्याचरणोंके द्वारा शत्रुकुलरूपी वृक्षोके उच्छेदकी वाँछा करता है, अथवा अनेक विकल्पोके साथ उन धर्म-कृत्योको करके अपनी लौकिक पूजा-प्रतिष्ठा तथा लाभादिककी याचना करता है, उसकी यह सब सकाम-प्रवृत्ति 'निदानज' नामका आर्तध्यान है । ऐसा प्रार्तध्यान मनुष्योके लिए दुःख-दावानलका अग्रस्थान होता है-उससे महादुःखोकी परम्परा
चलती है।
वास्तवमे आतध्यानका जन्म ही सक्लेश-परिणामोसे होता है, जो पापबन्धके कारण है। ज्ञानार्णवके उक्त प्रकरणान्तर्गत निम्न श्लोकमे भी आर्तध्यानको कृष्ण-नील-कापोत ऐसी तीन अशुभ लेश्याअोके बल पर ही प्रकट होनेवाला लिखा है और साथ ही यह सूचित्त किया है कि प्रार्तध्यान पापरूपी दावानलको प्रज्वलित करनेके लिए ईन्धनके समान है--
कृष्ण-नीलाधमल्लेश्याबलेन प्रविजृम्भते ।
इद दुरितदावाचि. प्रसूतेरिन्धनोपमम् ॥४०॥ इसमे स्पष्ट है कि लौकिक फलोकी इच्छा रखकर धर्मसाधन करना धर्माचरणको दूषित और निष्फल ही नहीं बनाता, वल्कि उलटा पापबन्धका कारण भी होता है, और इसलिए हमे इस विषयमे बहुत ही सावधानी रखनेकी ज़रूरत है। सम्यक्त्वके पाठ अंगोमें नि.काक्षित नामका भी एक अग है, जिसका वर्णन करते हुए श्रीममितगति प्राचार्य उपासकाचारके तीसरे परिच्छेदमें साफ लिखते हैं