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सकाम-धर्मसाधन विधीयमानाः शम-शील-संबमाः श्रियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । सांसारिकानेकसुखप्रवद्धिनी निकांक्षितो नेति करोति कांताम् ।।७४
अर्थात-नि काक्षित अंगका धारक सम्यग्दृष्टि इस प्रकारकी वाछा नही करता है कि मैंने जो शम, शील और सयमका अनुष्ठान किया है वह सब धर्माचरण मुझे उस मनोवांछित लक्ष्मीको प्रदान करे, जो नानाप्रकारके सासारिक सुखोमे वृद्धि करनेके लिए समर्थ होती है-ऐसी वाछा करनेसे उसका सम्यक्त्व दूषित होता है।
इसी नि काक्षित सम्यग्दृष्टिका स्वरूप श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने 'समयसार' में इस प्रकार दिया है
जो ण करेदि दु कख कम्मफले तह य सव्वधम्मसु । सो णिक्कखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयधो ।। २४८॥
अर्थात् - जो धर्मकर्म करके उसके फलकी-इन्द्रिय-विषयसुखादिकी - इच्छा नही रखता है- यह नहीं चाहता है कि मेरे अमुककर्मका मुझे अमुकलौकिक फल मिले-और न उस फलसाधनकी दृष्टिसे नाना प्रकारके पुण्यरूप धर्मोंको ही इष्ट करता हैअपनाता है--और इस तरह निष्कामरूपसे धर्मसाधन करता है, उसे 'नि.काक्षित सम्यग्दृष्टि' समझना चाहिये। __ यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि तत्त्वार्थसूत्रमे क्षमादि दश धर्मोके साथमे 'उत्तम' विशेषण लगाया गया हैउत्तम क्षमा, उत्तम मार्दवादिरूपसे दश धर्मोका निर्देश किया है। यह विशेषण क्यो लगाया गया है ? इसे स्पष्ट करते हुए श्रीपूज्यपाद प्राचार्य अपनी 'सर्वार्थ-सिद्धि' टीकामे लिखते हैं
दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् । अर्थात्-लौकिक प्रयोजनोको टालनेके लिए 'उत्तम' विशेषरणका प्रयोग किया गया है।
इससे यह विशेषणपद यहाँ 'सम्यक्' शब्दका प्रतिनिधि जान पड़ता है और उसकी उक्त व्याख्यासे स्पष्ट है कि किसी लौकिक