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भक्ति-योग- रहस्य
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पूर्णतया विकसित हो जाता है, तब वह जीवात्मा संसार - परिभ्रमणसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है, जिसकी दो अवस्थाए हैं--एक जीवन्मुक्त श्रीर दूसरी विदेहमुक्त | इस प्रकार पर्यायदृष्टिसे जीवोंके संसारी' और 'सिद्ध' ऐसे मुख्य दो भेद कहे जाते हैं, अथवा अविकसित अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्ण विकसित ऐसे चार भागोमें भी उन्हें बाटा जा सकता है । और इसलिये जो अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे ही उनके पूज्य एव प्राराध्य हैं, जो अविकसित या अल्पविकसित हैं, क्योकि श्रात्मगुणोका विकाश सबके लिये इष्ट है ।
ऐसी स्थिति होते हुए यह स्पष्ट है कि ससारी जीवोका हित इसमें है कि वे अपनी विभाव-परिरगतिको छोडकर स्वभावमे स्थिर होने अर्थात् सिद्धिको प्राप्त करनेका यत्न करे । इसके लिये श्रात्मगुणोका परिचय चाहिये, गुरणोमे वर्द्धमान अनुराग चाहिये और विकास मार्गको दृढ श्रद्धा चाहिये। बिना अनुरागके किसी भी गुरणकी प्राप्ति नहीं होती - अननुरागी अथवा प्रभक्त-हृदय गुरणग्रहणका पात्र ही नही, बिना परिचयके अनुराग बढाया नही जा सकता और बिना विकास मार्गकी दृढ श्रद्धाके गुणोके विकासकी और यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती । और इसलिये अपना हित एव विकास चाहनेवालोको उन पूज्य महापुरुषो अथवा सिद्धात्मानोंकी शरण मे जाना चाहिये -- उनकी उपासना करनी चाहिये, उनके गुरणों में अनुराग बढाना चाहिये और उन्हे अपना मार्ग प्रदर्शक मानकर उनके नक्शे कदम पर चलना चाहिये, अथवा उनकी शिक्षाश्रो पर अमल करना चाहिये, जिनमे आत्माके गुरणोका अधिकाधिक रूपमें अथवा पूर्णरूपमे विकास हुआ हो, यही उनके लिये कल्याणका सुगम मार्ग है ।
वास्तव में ऐसे महान महात्मानोके विकसित श्रात्मस्वरूपक भजन और कीर्तन ही हम संसारी जीवोंके लिये अपने श्रात्माका अनुभवन और मनन है। हम 'सोऽहं' की भावना - द्वारा उसे अपने
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