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बेनी कौन हो सकता है ? ३०१ परन्तु पीछेसे जब वे स्वच्छद होकर अपने धर्म-कर्ममें सिथिल हो गये और जैनधर्मसे गिर गये तब जैनियोने ग्राम तोरसे उनका पूजन्स और मानना छोड़ दिया। परन्तु फिर भी इस ब्राह्मण-वर्णमे बराबर जैनी होते ही रहे। हमारे परमपूज्य गौतम गरगधर, भद्रबाहु स्वामी और पात्रकेशरी प्रादिक बहुतसे प्राचार्य ब्राह्मण ही थे जिन्होने चहुँ ओर जैनधर्मका डका बजाकर जगतके जीवोका उपकार किया है। रहे वैश्य लोग, वे जैसे इस वक्त जैनधर्मको पालन करते हैं वैसे पहले भी पालन करते थे : ऐसी ही हालत शूद्रोकी है, वे भी कभी जैनधर्मको धारण करनेसे नहीं चूके और ग्यारहवी प्रतिमाके धारक चुल्लक तक तो होते ही रहे है। इस वक्त भी जैनियोंमें शूद्र, जैनी मौजूद हैं । बहुतसे जैनी शूद्रोका कम ( पेशा ) करते हैं। और शूद्र ही क्यो ? हमारे पूर्वज तीर्थकरो तथा ऋषि-मुनियोने तो चंडालो, भीलों और म्लेच्छो त को जनधर्मका उपदेश देकर उन्हें जैनी बनाया है, और न केवल जैनधर्मका श्रद्धान ही उनके हृदयोंमें उत्पन्न किया है बल्कि श्रावकके व्रत भी उनसे पालन कराये हैं, जिनकी सैकडो कथाएँ शास्त्रोमे मौजूद हैं। ___'हरिवशपुराण में लिखा है कि एक 'त्रिपद' नामके धीवर (कहार) की लडकीको, जिसका नाम 'पूतिगधा' था और जिसके शरीरसे दुर्गध आती थी, समाधिगुप्त मुनिने श्रावकके व्रत दिये। वह लडकी बहुत दिनो तक प्रायिकाके साथ रही अतमे सन्यास धारण करके मरी तथा सोलहवे स्वर्गमे जाकर देवी हुई और फिर वहाँसे आकर श्रीकृष्णकी पटरानी 'रुक्मिरणी' हुई। __चम्पापुर नगरमे अग्निभूत' मुनिने अपने गुरु सूर्यमित्र मुनिराजकी आज्ञासे, एक चाडाल लडकीको. जो जन्मसे अंधी पैदा हुई थी और जिसकी देहसे इतनी दुर्गंध आती थी कि कोई उसके पास जाना नहीं चाहता था और इसी कारण वह बहुत दुखी थी, जेनधर्म का उपदेश देकर श्राक्कके व्रत धारण कराये थे । इसकी कथा