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युगवीर-निबन्धावली कर सकता तो भी थोडा बहुत ज़रूर पालन कर सकता है। कमसे कम यदि उसका श्रद्धान भी ठीक हो जायगा तो उससे बहुत काम निकल जायगा और वह फिर धीरे धीरे यथावत् आचरण करनेमे भी समर्थ हो जायगा । इसी लिये शायद सोमदेवसूरिने 'यशस्तिलक' में लिखा है कि
'नवै संदिग्धनिर्वाहविदध्याद् गणवर्धनम् ।'
अर्थात्-ऐसे ऐसे नए मनुष्योसे भी अपने समाजकी समूहवृद्धि . करनी चाहिये जो सदिग्धनिर्वाह हैं-जिनके विषयमें यह सदेह है कि वे समाजके प्राचार-विचारका यथेष्ट पालन कर सकेंगे।
दूसरी नीतिका यह वाक्य है कि 'अयोग्य पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ.' अर्थात् कोई भी मनुष्य स्वभावसे अयोग्य नहीं है। परन्तु किसी मनुष्यको योग्यताकी ओर लगाना या किसीकी योग्यतासे काम लेना यही कठिन कार्य है और इसी पर दूसरे मनुष्यकी योग्यताकी परीक्षा निर्भर है। इसलिये यदि हम किसी मनुष्यको जैनधर्म धारण न करावे या किसी मनुष्यको जैनधर्मका श्रद्धानी न बना सके तो समझना चाहिये कि यह हमारी ही अयोग्यता है। इसमें उस मनुष्यका कोई दोष नही है और न इसमे जैनधर्मका ही कोई अपराध हो सकता है । इसलिये इस कच्चे विचार और बालखयालको बिल्कुल हृदयसे निकालकर फेक देना चाहिये कि 'अमुक मनुष्यको तो जैनधर्म बतलाया जावे और अमुकको नहीं'। प्रत्येक मनुष्यको जैनधर्म बतलाना चाहिये और जैनधर्मका श्रद्धानी बनाना चाहिये, क्योकि यह धर्म प्राणीमात्रका धर्म है - किसी खास जाति या देशसे सम्बद्ध (बंधा हुआ) नहीं है। ___यहां पर सब प्रकारके मनुष्योको जैनधर्मका श्रद्धानी अथवा जनी बनानेसे हमारे किसी भी भाईको यह समझकर भयभीत न होना चाहिये कि ऐसा होनेसे सबका खाना पीना एकदम एक हो जावेगा। खाना पीना और बात है-वह अधिकाशमें अपने ऐच्छिक