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युगवीर-निबन्धावली ब्रामण शत्रियो वैश्यः शुद्धो वाऽऽद्य सुशीलवान ।
व्रतो ढाचार सत्यशोचममन्वित ॥ १७॥ । (२) इसी प्रकार 'धर्मसग्रहश्रावकाचार' के वे अधिकारके श्लोक नं० १४० मे श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवालके उपयुक्त दोनो भेदोका कथन करनेके अनन्तर ही एक श्लोकमे-'पूजक' के स्वरूपकथनमें-ब्राह्मणादिक चारो वाँक मनुष्योको पूजा करनेका अधिः कारी बतलाया है। वह श्लोक यह है :
ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य प्राथ. शीलव्रतान्वितः।
सत्यशौचढाचारो हिंसाद्यव्रतदूग्ग ॥ १४३ ।। और इसी ६ वे अधिकारके श्लोक न० २२५ में ब्राह्मणोंके पूजन करना, पूजन कराना, पढना, पढाना, दान देना और दान लेना, ऐसे छह कर्म वर्णन करके उससे अगले श्लोकमें “यजनाध्ययने दान परेषां त्रीणि ते पुन" इस वचनसे क्षत्रिय, वैश्य और शुद्रीके पूजन करना पढना और दान देना, ऐसे तीन कर्म वर्णन किये हैं।
इन दोनो शास्त्रोंके प्रमारणोंसे भली भाति प्रकट है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारो वर्णोके मनुष्य जैनधर्मको धारण करके जैनी हो सकते हैं । तब ही तो वे श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेके अधिकारी वर्णन किये गये हैं।
(३) 'सागारधर्मामृत' में पं० प्राशाधरजीने लिखा है - 'शूद्रोऽयुपस्कराचार-वपुःशुध्याऽस्तु तादृशः। जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धी खात्मास्ति धर्मभाक ।।
(प्र० २ श्लो० २२) अर्थात्-प्रासन और बर्तन वगैरह जिसके शुद्ध हो, मांस और १. इस पद्यसे पहले स्वोपजटीकामे यह प्रविज्ञावाक्य भी दिया है
"अथ शूद्रस्याप्पाहारादिशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद्धर्मकियाकारित्व यथोचितमनुमन्यमान प्राह-"