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रिपी हैं । यथा:
न जातिर्गर्हिता काचिद् गुणा कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाण्डाल तं देवा ब्राह्मणं विदु ॥११- २०३ ॥ (५) सोमसेन के त्रैवरिकाचारमे भी एक पुरातन श्लोक निम्न प्रकारसे पाया जाता है
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युगवीर - निबन्धावली
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विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा प्रोक्ता क्रियाविशेषत ।
जैनधर्मे परा शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमा ॥ ७-१४२ ।।
इसमे लिखा है कि- 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारो वर्ग अपने अपने नियत कर्मके विशेष की अपेक्षासे कहे गये हैं, जैनधर्मको पालन करनेमे इन चारो वर्णोंके मनुष्य परम समय है और उसे पालन करते हुए वे सब प्रापसमे भाई भाईके समान है ।' इन सब प्रमारगोसे सिद्धान्तकी अपेक्षा, प्रवृत्ति की अपेक्षा और शास्त्राधारकी अपेक्षा सब प्रकारसे यह बात कि 'प्रत्येक मनुष्य जैनधर्मको धारण कर सकता है' कितनी स्पष्ट और साफ तौर पर सिद्ध हैं, इसका अनुमान हमारे पाठक स्वय कर सकते हैं और मालूम कर सकते हैं कि वर्तमान जैनियो की यह कितनी भारी गलती और बेसमझी है जो केवल अपने आपको ही जैनधर्मका मौरूसी हकदार समझ बैठे हैं।
अफसोस । जिनके पूज्य पुरुषो, तीर्थकरो और ऋषि-मुनियो आदिका तो इस धर्मके विषय में यह खयाल और यह कोशिश कि कोई भी जीव इस धमसे र्वाचित न रहे --यथासाध्य प्रत्येक जीवको इस धर्ममे लगाकर उसका हित साधन करना चाहिये, उन्ही जैनियो - की आज यह हालत कि वे कजूस और कृपरणकी तरह जैनधमको छिपाते फिरते हैं । न श्राप इस धर्मरत्नसे लाभ उठाते है और न दुसरोको ही लाभ उठाने देते हैं। इससे मालूम होता है कि श्राजकल जैनी बहुत ही तगदिल (सकी हृदय) हैं और इसी तर्गादिली ने उन पर संगदिली ( पाषाण हृदयता ) की घटा छा रक्खी है ।