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MANTRAPE
जैनी कौन हो सकता है ? २९ धर्म धारण करने और धावकके व्रत पालन करनेके सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है--
अब हाथो सनम साधै। स जीव न भूल विराधै ।। समभाव छिमा उर मान । परि मित्र बराबर जाने ।। काया कसि इन्द्री दहैं। साहस घर प्रौषध महे ।। सूखे तृण पल्लव भच्छै । परमदित मारग गच्छे। हाथीगण होह्यो पानी । सो पीवै गजपति ज्ञानी। देखे बिन पौवन राखे। तन पानी पक न नाखे। निजशील कमी नहि खावै । हथिनी दिशभूल न जोधे ।। उपसर्ग सहै अति भारी। दुर्ध्यान तजे दुखकारी। अघके मय अग न हाले। हद धीर प्रतिज्ञा पाले। चिरलों दुद्धर तपकीनो। बलहीन भयो तन छोना। परमेष्ठि परमपद ध्यावै। ऐसे गज काल गमावै ।। एकैदिन अधिक तिसायौ। तब वेगवती तट पायौ ॥ जलपीवन उद्यम कीधी। कादोद्रह कुजर बीधौ।। निश्चय जब मरण विचारौ। सन्यास सुधी तब धारौ।।
इससे साफ प्रकट है कि अच्छा निमित्त मिल जाने और शुभ कर्मका उदय आ जाने पर पशुओंमें भी मनुष्यता आ जाती है और ये मनुष्योंके समान धर्मका पालन करने लगते हैं, क्योकि द्रव्यत्वकी अपेक्षा सब जीव, चाहे वे किसी भी पर्यायमें क्यो न हों, आपसमें बरावर हैं। यही हाथीका जीव, जैनधर्मके प्रसादसे, इस पशुपर्यायको छोडकर बारहवे स्वर्गमें देव हुमा और फिर उन्नतिके सोपानपर चढता चढता कुछ ही जन्म लेनेके पश्चात् हमारा पूज्य तीर्थकर 'पार्श्वनाथ हपा है।
इसी तरह और बहुतसे पशुप्रोने जैनधमको धारण करके अपने प्रात्माका विकास और कल्याण किया है । जब पशुप्रो तकने जैनधर्म को धारण किया है, तब फिर मनुष्योका तो कहना ही क्या ?