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युगवीर निवन्धावली
स्मरण और चिन्तन करनेसे शुभ भावोकी उत्पत्ति द्वारा पापपरिपति छूटती और पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है तो नतीजा इसका यही होता है कि हमारी पापप्रकृतियोका रस सूखता और पुण्यप्रकृतियोका रस बढता है। पाप-प्रकृतियोका रस (अनुभाग ) सूखने और पुण्य - प्रकृतियोंमें रस बढनेसे अन्तराय कर्म नामकी प्रकृति, जो कि एक मूल पाप - प्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोगोपभोग प्रादिमें विघ्नस्वरूप रहा करती है - उन्हे होने नही देती - वह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्टको बाधा पहुँचानेमे समर्थ नही रहती । तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं और उनका श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है । जैसा कि एक आचार्य महोदय निम्नवाक्यसे प्रगट है
नेष्टविहन्तु शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरन्तराय ।
तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थ कदाऽर्हदादे || ऐमी हालत मे यह कहना कि परमात्माकी सच्ची पूजा, भक्ति और उपासनासे हमारे लौकिक प्रयोजनोकी भी सिद्धि होती है, कुछ भी अनुचित न होगा । यह ठीक है कि, परमात्मा स्वय अपनी इच्छापूर्वक किसीको कुछ देता दिलाता नही है और न स्वय प्राकर अथवा अपने किसी सेवकको भेजकर भक्तजनोका कोई काम ही सुधारता है तो भी उसकी भक्तिका निमित्त पाकर हमारी कर्मप्रकृतियोमे जो कुछ उलट-फेर होता है उससे हमे बहुत कुछ प्राप्त हो जाता है और हमारे अनेक बिगडे हुए काम भी सुधर जाते हैं । इसलिये परमात्मा के प्रसादसे हमारे लौकिक प्रयोजन भी सिद्ध होते है इस कहने सिद्धान्तकी दृष्टिसे, कोई विरोध नही आता । परन्तु फलप्राप्तिका यह सारा खेल उपासनाकी प्रशस्तता, प्रशस्तता और उसके द्वारा उत्पन्न हुए भावोंकी तरतमता पर निर्भर है । अत हमे अपने भावोकी उज्ज्वलता, निर्मलता और उनके उत्कर्षसाधन पर वाम तौर से ध्यान रखना चाहिये और वह तभी बन सकता है जब