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युगवीर-निबन्धावली प्रत्येक ध्यान अथवा चितनके लिये क्सिी न किसी मूर्ति या प्राकारविशेषको अपने सामने रखना होता है, चाहे वह नेत्रोके सामने हो अथवा मानसप्रत्यक्ष । इसी अभिप्रायको हृदयमे रखकर १० मगतरायजीने ठीक कहा है--
अबस यह जैनियों पर इत्तहामे बुतपरस्ती है। बिना तसवीर के हरगिज़ तसव्वर हो नहीं सकता।
अर्थात्--जैनियो पर बुतपरस्तीका-मूर्तिपूजाविषयक-जो इलज़ाम लगाया जाता है--यह कहा जाता है कि वे धातुपाषाणके पूजनेवाले है--वह बिल्कुल व्यर्थ और नि सार है, क्योकि कोई भी तसन्चर--कोई भी ध्यान अथवा चिन्तन-विना तसवीरके-बिना मूर्ति या चित्रका सहारा लिये- नहीं बन सकता । भावार्थ, ध्यान तथा चिन्तनकी सभीको निरन्तर जरूरत हुआ करती है, इसलिए सभीको मूर्तियोका प्राश्रय लेना पड़ता है और इस दृष्टिसे सभी मूर्तिपूजक है । तब, जैनियोपर ही से उसका दोष मढा जा सकता है ? उन्हे, इस विषयमे दोष देना बिल्कुल फजूल और निर्मूल है। वे अपनी मूर्तियोके द्वारा परमात्माका ही ध्यान तथा चिन्तन किया करते हैं।
इसलिए जो लोग मूर्तिपूजाका निषेध करते है, मूर्तिको जड अचेतन,कृत्रिम बतलाकर और यह कहकर कि वह हमारा कुछ भला नहीं कर सकती उससे घृणा उत्पन्न कराते है, यह सब उनकी बडी भारी भूल है । वे खुद बात बातमे मूर्तिका सहारा लिया करते हैं, मूर्तियोका आदर-सत्कार करते हुए देखे जाते हैं। जड पदार्थोक पीछे भटकते हैं, उनके लिए अनेक प्रकारकी दीनताएँ करते हैं,ससार
१ वेदादि शास्त्रोका विनय और अपने महात्मानोके खिोकी इज्जत करते हैं तथा परमात्मा नामादिकोको बडी भक्तिके साथ उच्चारण करते हैं।