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युगवीर-निबन्धावली
एक प्रश्न यहाँ पर यह प्रश्न पैदा हो सकता है कि ज़रूरियात तो ज़रूरियात ही होती हैं उनमे फिजूलियात क्या, जिनको छोडा या घटाया जावे ? अत इसकी भी कुछ व्याख्या कर देनी जरूरी और मुनासिब मालूम होती है । यह ठीक है कि जरूरियात जरूरियात ही होती हैं परन्तु बहुतसी जरूरियात ऐसी भी होती है जो फिजूल पैदा करली जाती हैं या जिनको पूरा न करनेसे वस्तुत कोई हानि नही पहुँचती । ऐसी सब जरूरियात फिजूलियातमे दाखिल हैं और वे आसानीसे छोडी या घटाई जा सकती है । कल्पना कीजिये, एक मनुष्य क्रोधकी हालतमे अपने पेटमे छुरी या सिरमे ईंट मार कर घाव कर लेता है और फिर उस पर मरहम पट्टी करने बैठता है, घावको वह मरहम-पट्टी ज़रूरी हो सकती है,परन्तु यह ज़रूर कहना होगा कि उसने उसकी जरूरियातको फिजूल अपने आप पैदा किया है और वह आगेको वैसी कुचेष्टाम्रोसे बाज (विमुख) रह सकता है। एक आदमी बहुतसी शराब पीकर अपनी विषयवासनाको भडकाता अथवा उत्तेजित करता है और इससे उसे बेवक्त ही एक स्त्रीकी जरूरत पैदा होती है, यह जरूरत भी फिजूलकी ज़रूरत है-स्वाभाविक अथवा प्राकृतिक नही है--और उसको पूरा न करनेसे कोई खास नुकसान नहीं पहुँचता । इस तरहकी न मालूम कितनी जरूरियातको हम पैदा करते रहते है और उनको पूरा करनेमे अपनी शक्तिका व्यर्थ ही नाश तथा दुरुपयोग करते चले जाते है।
एक छोटेसे बच्चेको, जिसे भले-बुरेकी कुछ भी पहिचान अथवा तमीज़ नही है और जिसे चाहे जिस साँचेमे ढाला जा सकता है, उसके माता पिता यदि बढ़िया बढिया रेशम, कीमख्वाब, अतलस, मखमल और सुनहरी कामके वस्त्र पहनाते हैं और इस तरह उसमे शौकीनी तथा विलासिताका भाव भरते हैं, जिसकी वजहसे वह बादको साधा