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जैनी नीति
२६५ खीचती है - अपनाती है-उसी समय उसके दूसरे अन्त ( धर्म या अश) को ढीला कर देती है-उसके विषयमे उपेक्षाभाव धारणं कर लेती है । फिर दूसरे समय उस उपेक्षित अन्तको पनाती और पहले से अपनाए हुए अन्तके साथ उपेक्षाका व्यवहार करती हैंएकको अपनाते हुए दूसरेका सर्वथा त्याग नहीं करतीं, उसे भी प्रकारान्तरसे ग्रहण किये रहती है । और इस तरह मुख्य गौणकी व्यवस्थारूप निर्णय - क्रियाको सम्यक् संचालित करके वस्तु-तत्वको निकाल लेती है--उसे प्राप्त कर लेती है। किसी एक ही अन्त पर उसका एकान्त श्राग्रह प्रथवा कदाग्रह नहीं रहता- वैसा होने पर वस्तुकी स्वरूपसिद्धि ही नही बनती । वह वस्तुके प्रधान प्रप्रधान सब तो पर समान दृष्टि रखती है-उनकी पारस्परिक अपेक्षाको जानती है— और इसलिये उसे पूर्णरूपमे पहचानती है तथा उसके साथ पूरा न्याय करती है । उसकी दृष्टिमें एक वस्तु द्रव्यकी अपेक्षामे यदि नित्य है तो पर्यायकी अपेक्षासे वही अनित्य भी है, एक के कारण जो वस्तु बुरी है दूसरे गुरु के कारण वह वस्तु अच्छी भी है एक वक्त में जो वस्तु लाभदायक है दूमरे वक्त में वही हानिकारक भी है, एक स्थान पर जो वस्तु शुभरूप है दूसरे स्थान पर वही अशुभरूप भी है औौर एकके लिये जो हेय है दूसरेके लिये वही उपादेय भी है । वह विषको मारनेवाला ही नही किन्तु जीवनप्रद भी जानती है और इसलिये उसे सर्वथा हेय नही समझती ।
इस नीति की दृष्टिमे नित्यका अनित्यके साथ और अनित्यका नित्य के साथ, विधिका निषेधके साथ और निषेधका विधिके साथ तथा मुख्यका गौणके साथ और गौरणका मुख्यके साथ अविनाभावसम्बन्ध है - एकके बिना दूसरेका प्रस्तित्व बन नही सकता। जिस प्रकार सम-तुलाका एक पल्ला ऊँचा होने पर दूसरा पल्ला स्वयमेव नीचा हो जाता है- ऊँचा पल्ला नीचेके बिना और नीचा पल्ला ऊँचेके बिना बन नही सकता और न कहला सकता है, उसी प्रकार