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जैनी नीति जिनेन्द्रदेवकी अथवा जैनधर्मकी जो मुख्य नीति है और जिस पर जिनेन्द्रदेवके उपासको, जैनधर्मके अनुयायियों तथा अपना हित चाहनेवाले सभी सज्जनोको चलना चाहिये, उसे 'जैनी नीति' कहते हैं। वह जैनी नीति क्या है अथवा उसका क्या स्वरूप और व्यवहारहै, इस बातको श्रीअमृतचन्द्राचायने अपने एक वाक्यमें अच्छी तरहसे दर्शाया है, जो इस प्रकार है -
एकेनाऽऽकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुमत्त्वमित रेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी । इसमे, जैनी नीतिको दूध-दही बिलोनेवाली गोपी (ग्वालिनी)की उपमा देते हुए बतलाया है कि-जिम प्रकार ग्वालिनी बिलोते समय मथानीकी रस्सीको दोनो हाथोमे पकड कर उसके एक सिरे(अन्त ) को एक हाथसे अपनी ओर खीचती और दूसरे हाथसे पकडे हुए सिरेको ढीला करती जाती है, एकको खीचनेपर दूसरेको बिल्कुल छोड नहीं देती किन्तु पकडे रहती है, और इस तरह बिलोनेकी क्रियाका ठीक सम्पादन करके मवखन निकालने रूप अपना कार्य सिद्ध कर लेती है । ठीक उसी प्रकार जैनी नीतिका व्यवहार है । वह जिस समय अनेकान्तात्मक वस्तुके द्रव्य-पर्याय या सामान्य-विशेषादिरूप एक अन्तको-धर्म या अशको-अपनी ओर