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युगवीर-निबन्धावली अपने पैरमे माप कुल्हाडी मार रक्खी है और व्यर्थकी मुसीबत अपने ऊपर ले रखी है। इन जरूरियातको पूरा करनेकी धुन, फिक्र और चक्कर में हम अपनी प्रास्माकी तन-बदनकी और धर्म-कर्मकी सारी सुधि भूले हुए है और हमारी वह सब हालत हो रही है जिसका (खके प्रारममे ही कुछ चित्र खीचकर पाठकोके सामने रक्खा गया है। हमारे सामने हरदम रुपये-पसे या टकेका ही एक सवाल खडा रहता है, रात दिन उसीका चक्कर चलता है और उसीके पीछे हमारे जीवनकी समाप्ति हो जाती है।
जब हमारे पास आमदनी कम और खर्च ज्यादा है और हम अपनी जरियातको पूरा करनेके लिए न्यायमार्गसे काफी रुपया पैदा नहीं कर सकते तब उन्हे पूरा करनेके लिये हम छल, कपट, फरेब, धोखा, दगाबाजी, जालसाजी, चालबाजी, चोरी, सीनाजोरी, घूसखोरी, विश्वासघात, असस्यव्यवहार, न्यासापहार ( धरोहरमारना), हत्या और बेईमानी नही करेंगे तो और क्या करेगे ? उस वक्त धर्मके पैसे पर, मन्दिरो तीर्थों या दूसरी सस्थाप्रोके रुपये पर यदि हमारी नियत डिग जाय, हम अपनी सुकुमार कन्यामो तकको बेचने लगे और आपसमें खीचातानी बढाकर मुकद्दमेबाजी पर उतर आवे तो इसमे आश्चर्यकी बात हो क्या है ? ___वास्तवमें हमारी सारी खराबी और गिरावटका कारण ये फिजूलकी जरूरियात ही हैं। इन्हीकी वजहसे हमारी उन्नति रुकी हुई है. हम अपनी प्रात्माका कल्याण नहीं कर सकते, पापसमे प्रेमसे नहीं रह सकते एक दूसरेकी सहायता नहीं कर सकते और न सचमुचमें मनुष्य ही बन सकते हैं । इनकी बढवारीसे ही हमारा दुख बढ़ा हुआ है । यदि हम उस दुखको घटाना या दूर करना चाहते हैं तो हमे अपनी उन ज़रूरियातको घटाना या दूर कर देना होगा। बाकी यह खयाल गलत है कि जरूरियातको पूरा करके हम अपने दुख-दर्द एवं वेदनाको दूर कर सकेंगे उसमें कोई वास्तविक