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हम दुखी क्यों हैं?
२९१ जाते हैं । अदालतोंके न्यायका कोई ठिकाना नही, उन्हें प्राय 'बूढा मरो या जवान अपनी ह या अथवा भुगतानसे काम' होता है, गरीबो और बे-पैसे या बे-आदमियोवालोकी वहाँ कोई पहुंच अथवा पूछ नही होती, एक अदालतके फैसलेको दूसरी दूसरीके निर्णयको तीसरी और तीसरीके हुकमको चौथी अदालत तोड देती है और कभी कभी एक ही अदालतका एक हाकिम दूसरे हाकिमके हुक्मको या खुद अपने हुकमको भी तोड देता अथवा रद्द कर देता है। इस तरह न्यायके नाम पर बडा ही अजीब नाटक होता है। __पचायतोका कोई बल रहा नहीं, पच लोग अपनी बेईमानी और एक दूसरेकी बेजा तरफदारीकी वजहसे अपनी सारी प्रतिष्ठा, पद्धति और शक्तिको खो बैठे हैं, उन पर लोगोका विश्वास नहीं रहा, इससे चारो ओर हाहाकार मचा हुआ है। लोग फिर फिरकर अदालतोकी ही शरणमे जाते हैं और अपनेको नष्ट तथा बर्बाद करनेके लिये मजदूर होते हैं। मुकदमेबाजीका बेहद खर्चा बढा हुआ है -- तीसरी चौथी अदालतके हारनेवाला प्राय नगा हो जाता है
और जीतनेवालेके पास एक लगोटी ही शेष रह जाती है। इससे न्याय यदि कभी मिलता भी है तो वह बहत ही महंगा पड़ता है। ____लोग कहते हैं कि आजकल जमाना उन्नतिका है। परन्तु मुझे तो इन हालो वह कुछ उन्नतिका जमाना मालूम नहीं होता, बल्कि खासा अवतिका जान पडता हैं । जब हमारी आत्मिक शक्ति, शारीरिक बल नीति, सभ्यता, शिष्टता, धर्मकर्म और सुखशांतिका बराबर दिवाला निकलता चला जाता है तब इस जमानेको उन्नतिका जमाना कैसे कह सकते हैं ? उन्नतिका जमाना तो तब होता जब इन बातोंमें कोई प्रादर्श उन्नति नजर आती । परन्तु आदश उन्नति तो दूर, उलटी अवनति ही अवनति दिखलाई दे रही है । और हम इन सब बातोमें अपने पूर्वपुरुषोसे बहुत ही ज्यादा पिछड़े हुए हैं और पिछड़ते जाते है । हमने अपनी जरूरियातको बढ़ाकर फिजूल