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हम दुखी क्यों हैं ?
२८३ कुटुम्बके सब लोग तथा मित्रादिक कुशल-क्षेमसे रहें हमें उनमेंसे एक का भी दुख न देलना पडे, हमारा कोई विरोधो या शत्रु पैदा न हो, किसी अनिष्टका हमारे साथ सयोग न हो सके, हमारी पैदा की हुई इज्जत प्रतिष्ठा या बातमें किसी तरह भी फर्क न आवे-वह ज्यों की त्यो वनी रहे-और हम सब प्रकारके पानद तथा सुख भोग करते हए चिरकाल तक जीवित रहे, वगैरह वगैरह । ऐसे लोग फिजूल हैरान तथा परेशान होते है और व्यर्थ ही अपनेको दुखी बनाते है, क्योकि उन कामनारोका पूरा होना सब तरहमे उनके अधीन नहीं होता, वे जिन सुखोको चाहते है वे सब बहुत कुछ पराश्रित और पराधीन है ओर पराधीनतामें कही भी सुख नहीं है। सुखका सच्चा उपाय 'स्वाधीन-वृत्ति है । जितनी जितनी स्वाधीनता-पाजादी और खुदमुख्तारी-बढती जाती है, दूसरेकी बीचमे जरूरत या अपेक्षा नही रहती, उतनी उतनी ही हमारे सुखमे बढवारी होती जाती है, और जितनी जितनी पराधीनतागुलामी मुहताजी और बेबसी-उन्नति करती जाती है उतनीउतनी ही हमारे दु खमे वृद्धि होती जाती है । फिजूलकी जरूरियातको बढा लेनेसे पराधीनता बढती है और उससे हमारा दुख बढ जाता है। प्रत हमको, जहाँ तक बन सके, अपनी जरूरियातको बढाना नही चाहिये, बल्कि घटाना चाहिये और ऐसी तो किसी भी जरूरतका अपनेको आदी, व्यसनी या वशवर्ती न बनाना चाहिये जो फिजूल हो या जिससे वास्तवमे कोई लाभ न पहँचता हो। ऐसा होनेपर हमारा दुख घट जायगा और हमे सुख प्रासानीसे मिल सकेगा।