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युगवीर - निबन्धावली
लिये काफी हो जाते थे । करीब चालीस पचास रुपयेकी लागतमें एक अच्छे कुटुम्बका खुशीसे पूरा पट जाता था । स्त्रियाँ अपने दावन | लहंगे प्रोढने कसू भे प्रादिके प्राकृतिक रगमे ही रंग लेती थी और प्राय वैसे ही दावन प्रोढने विवाह-शादियो में दुलहनो ( बहुप्रो ) को चढाए जाते थे । परन्तु श्राज नुमाइशका भूत या खब्त हमारे सिर पर कुछ ऐसा सवार है कि उसके पीछे हम हर साल लाखो और करोडो रुपये फिजूल खर्च कर डालते हैं, विदेशी कपडोकी चमक-दमक और रंग-ढगने हमारी आँखे खराब कर रक्खी हैं और हमे अपने पीछे पागलसा बना रखा है । कपडे की भी कोई गिनती नही और न उनकी लागतका ही कोई तखमीना, अन्दाजा अथवा परिमारण पाया जाता है। भला एक छोटेसे बेखबर बच्चेको बीस, तीस, पचास या सौ रुपयेसे भी अधिक मूल्यकी पोशाक पहना देनेसे नतीजा है, जिसको अपने तन बदनका कुछ भी होश नही, जो उस कपडेकी कीमत और कद्रको नही जानता, भटसे उसे मैली या खराब कर देता है और जिसको उसके पहननेमे कुछ भी प्रानन्दका अनुभव नही होता, बल्कि कभी कभी तो भारसा मालूम पड़ता है ? इसे ख़त नही तो और क्या वह सक्ते है ? ऐसे बच्चो के माता पिता सचमुच ही उनके माता पिता अथवा हितैषी नही किन्तु शत्रु होते है, क्योंकि वे उनमे शौकीनी तथा नुमाइशका भाव भरकर उनकी आगामी ज़रूरयातको फिजूल बढाने और उनके जीवनको भाररूप बनानेका प्रायोजन करते है - सामान जोडते अथवा बीडा बाँधते हैं। इसी तरह स्त्रियोकी पोशाक और उनके जेवरातकी हालत समझिये । उनके पीछे समाजका बेहद रुपया फिजूल खर्च होता है । जिन स्त्रियोको बोलने तककी तमीज़ नही - विवेक नही - वे भी सिर से पैर तक बहुमूल्य वस्त्रो तथा जेवरोसे लदी रहती हैं । मालूम नही, इससे उनको क्या पोष चढता है, उनकी आत्माको क्या लाभ और उनकी तन्दुरुस्तीको क्या फायदा पहुँचता है ?