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हम दुखी क्यो हैं ?
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बाकी रहे विवाह-शादियोके खर्च, उनका तो कोई ठिकाना ही नही । उनके साथमे तो फिजूलियातका एक बडा अध्यायका अध्याय खुला हुआ है - रोपना, सगाई, सजोया, टोनी, चिट्ठी, टेवा, हलद,मँढा लगन, भात, जीमन-जोनार, भाजी, नौता, गाना-बजाना, नाचना, सीठना, बेल बासना, घोडीका चाव, चढत, बढियार, फेरे, संस्कार, बूर, बखेर, पत्तल, परोसा, दात, खैरात, मिलाई, दहेज, बरपट्टा, रुखसत, बिदा और गौना वगैरहकी न मालूम कितनी और कैसी कैसी रस्मे प्रदा करनी पडती हैं और उनमें कितना खर्च होता है || एक लाला साहबसे मालूम हुआ कि उनके पहले पुत्रकी शादी दुलहनके लिये दावनकी जो तीयल तैय्यार कराई गई थी उसको पाँचसौ रुपये की लागत लगती रही थी, दूसरे पुत्रकी शादी
सौ रुपये की लागत आई और अब तीसरे पुत्रके विवाहमे पन्द्रहसौ रुपये से भी अधिक लागतकी तीयल तैय्यार कराई गई है। एक दावन, प्रोढने और प्रागीको लागतका जब यह हाल है तब विवाहके कुल खर्चेका तखमीना, जिसमे ज़ेवर भी शामिल हैं, कितने हजार होगा, इसे पाठक स्वय ही समझ सकते हैं ।
अब तो टोपियोके साथ चाँदीके बर्तन वगैरह के अतिरिक्त बडा ग्रामोफोन बाजा और बर्फ बनानेकी मशीन तक भी खेल-खिलौनोंके तौर पर दी जाने लगी हैं। इससे जाहिर है कि विवाह-शादियोके खर्च दिनपर दिन बढ़ते जाते हैं और ये सब फिजूल खर्च हमारे खुद के बढाए हुए है। समझ नही आता, जब विवाहकी असली गरज और उसका खास काम बहुत थोडेसे रुपयोमें भी पूरा हो सकता है, तब उसके लिए हजारो रुपये खर्च करना कौन बुद्धिमत्ता और अक्लमंदी की बात है ? और वह फिजूलियात नही तो और क्या है ? क्या एक विवाहमे अधिक खर्च कर देनेसे घरमें एककी जगह दो बहुऍ आजायेगी या लडकीका सुहाग (सौभाग्य) कुछ बढ़ जायगा और क्या स्त्रियाँ यदि बहुमूल्य वस्त्राभूषरण न पहनकर मादा लिबासमें
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