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जाति-भेद पर अमितगति श्राचार्य
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जो सत्य, शौचादि गुणोसे विशिष्ट हैं वे हीन जातिमे उत्पन्न होने पर भी धर्मका लाभ प्राप्त कर सकते हैं और इसलिये जो लोग किसी उच्च कहलानेवाली जातिमे उत्पन्न होकर सत्य-शौचादि धर्मोंका अनुष्ठान न करते हुए भी अपनेको ऊँचा, धर्मात्मा, धर्माधिकारी या धर्मका ठेकेदार समझते हैं और अपनेसे भिन्न जातिवालोका तिरस्कार करते हैं, यह उनकी बड़ी भूल है ।
श्राचारमात्रभेदेन जातीनां भेद-कल्पनम् ।
न जातिर्ब्राह्मणीयास्ति नियता क्वापि सात्त्विकी ||२४|| 'जातियोकी जो यह ब्राह्मण-क्षत्रियादि रूपसे भेदकल्पना है वह प्रचारमात्र के भेदसे है - वास्तविक नही । वास्तविक दृष्टिसे कही भी कोई नियता - शाश्वती - ब्राह्मरण जाति नही है । ( इसी तरह क्षत्रिय आदि जातियाँ भी तात्त्विक और शाश्वती नही हैं ।) '
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भावार्थ - ये मूल जातिया भी ( अग्रवाल खडेलवाल आदि उपजातियोकी तो बात ही क्या ) गौ-प्रश्वादि जातियोकी तरह वास्तविक नही है, किन्तु काल्पनिक हैं और उनकी यह कल्पना आचारमात्र के भेदसे की गई है । प्रत जिस जातिका जो प्राचार है उसे जो नही पालता वह उस जातिका व्यक्ति नही -- उसकी गणना उस जाति व्यक्तियो की जानी चाहिये जिसके प्राचारका वह पालन करता है । ऐसी दशामे ऊँची जातिवाले नीच और नीची जातिवाले उच्च हो जानेके अधिकारी है । इसीसे भीलो तथा म्लेच्छो प्रादिकी जो कन्याएँ उच्च जातिवालोसे विवाही गई वे प्राचारके बदल जानेसे उच्च जाति परिरणत होकर उच्चत्यको प्राप्त हो गई, और उनके कितने ही उदाहरण 'विवाहक्षेत्र प्रकाश मे दिये गये है ।
ब्राह्मणक्षत्रियादीना चतुर्णामपि तत्त्वत' ।
एकै मानुषो जातिराचारेण विभज्यते ।। २५ ।। 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारोकी वास्तवमे एक ही मनुष्य जाति है, वही ग्राचारके भेदसे भेदको प्राप्त हो गई हैं-जो