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युगवीर निवासी
ही गोत्रमें विवाह करते हैं भगवा यो कहिये कि पिछली गोत्रकल्पनाको निकाल देने पर उनके वे विवाह सगोत्रविवाह ठहरते हैं दूसरे गोत्रोंकी भी प्राय ऐसी ही हालत है। इसके सिवाय, ऐसा कोई प्रमाण नही मिलता जिससे यह मालूम होता हो कि पहले एक नगर-ग्रामके निवासी श्रापसमे विवाह सम्बध नही किया करते थे । और यदि कहीं ऐसा होता भी हो तो प्राजकल जब वह प्रथा नही रही और एक ही नगर-ग्रामके निवासी खडेलवाल परस्पर मे विवाह कर लेते हैं तब उनके लिये एक ही नगर -ग्रामके निवासियोसे बने हुए अपने एक गोत्र विवाह सम्बध कर लेने पर सिद्धान्तकी दृष्टिसे कौन बाधा श्राती है अथवा उसका न करना कहाँ तक युक्तियुक्त हो सकता है इसका विचार पाठकजन स्वय कर सकते है ।
(३) 'जैनसम्प्रदार्याशक्षा" मे यति श्रीपालचन्द्रजीने श्रोसवाल वशकी उत्पत्तिका जो इतिहास दिया है उससे मालूम होता है कि रत्नप्रभसूरि ने, 'महाजन वश' की स्थापना करते हुए, तातहड' आदि अठारह गोत्र और 'सुघड' आदि बहुतसे नये गोत्र स्थापित किये थे। और उनके पीछे वि० स० सोलहसी तक बहुतसे जैनाचायोंने राजपूत, महेश्वरी, वैश्य और ब्राह्मरण जातिवालोंको प्रतिबोध देकर उन्हे जैनी बना कर महाजन वशका विस्तार किया और उन लोगोमें अनेक नये गोत्रोकी स्थापना की । इन सब गोत्रोका यतिजीने जो इतिहास दिया है और जिसे प्रामाणिक तथा प्रत्यन्त खोजके बाद लिखा हुआ इतिहास प्रकट किया है उसमे से कुछ गोत्र इतिहासका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
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१ कुकुडचोपडा प्रादि गोत्र - जिनवल्लभसूरि (वि०स०११५२) ने मडोरके राजा 'नानुदे' पडिहारके पुत्र धवलचद्रके गलितकुष्ठको कुकडी गाय घीको मंत्रित करके तीन दिन चुपडवाने द्वारा नीरोग
१ यह पुस्तक वि० स० १६६७ मे बम्बई मे प्रकाशित हुई है ।