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गोत्र- स्थिति और सगोत्र विवाह
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ऊपर के कथनसे भले प्रकार समझ सकते है । हो सकता है कि इस कल्पनाके मूलमे कोई प्रोढ सिद्धान्त न हो और वह पीछेसे कुछ काररगोको पाकर निरी कल्पना ही कल्पना बन गई हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमे सन्देह नही कि यह कल्पना प्राचीन कालके विचारो और उस वक्त विवाह सम्बन्धी रीति-रिवाजोसे बहुत कुछ विलक्षण तथा विभिन्न है -- इसमे निराधार खीचातानीकी बहुलता पाई जाती है - और उसके द्वारा विवाहका क्षेत्र अधिक सकीर्ण हो गया है । समझ नही आता, जब बहुत प्राचीन कालसे गोत्रो में बराबर अलटापलटी होती आई है, अनेक प्रकारसे नवीन गोत्रोकी सृष्टि होती रही है, एक पुत्र भी पिताके गोत्रको छोडकर अपनेमे नये गोत्रकी कल्पना कर सकता था और इस तरह अपने अथवा अपनी सततिके विवाह - क्षेत्र विस्तीर्ण बना सकता था तब वे सब बाते प्राज क्यो नही हो सकती--उनके होनेमे कौनसा सिद्धान्त वाधक है ? गोत्र-परिपा टीको कायम रखते हुए भी, प्राचीन पूर्वजोके अनुकरण द्वारा विवाहक्षेत्रको बहुत कुछ विस्तीर्ण बनाया जा सकता है । प्रत समाजके शुभचिंतक सहृदय विद्वानोको इस विषय पर गहरा विचार करके गोत्रकी वर्तमान समस्याको हल करना चाहिये और समाजको उसकी उन्नतिका साधक कोई योग्य तथा उचित मार्ग सुझाना चाहिये ।
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