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जाति-पंचायतोंका दंड-विधान २५३ उससे तिरस्कृत व्यक्ति अपने पापकार्यमें और भी दृढ हो जाता है और तिरस्कारीके प्रति उसकी ऐसी शत्रुता बढ जाती है जो जन्मजन्मान्तरोमे अनेक दुखों तथा कष्टोका कारण होती हुई दोनोके उन्नति-पथमे बाधा उपस्थित कर देती है । हाँ, सुधार होता है, प्रेम उपकार और सद्व्यवहारसे । यदि चारुदत्तके कुटुम्बीजन अपने इन गुरगो और उदार-परिणतिके कारण, वसन्तसेनाको चारुदत्तके पीछे अपने यहाँ आश्रय न देते बल्कि यह कहकर दुतकार देते कि 'इस पापिनीने हमारे चारुदत्तका सर्वनाश किया है, इसकी सूरत भी नही देखनी चाहिये और न इसे अपने द्वार पर खडे ही होने देना चाहिये तो बहत सभव था कि वह निराश्रित-दशामे मजबूर होकर अपनी माताके ही पास जाती और वेश्यावृत्तिके लिये मजबूर होती, और तब उसका वह सुन्दर श्राविकाका जीवन न बन पाता जो उन लोगोंके प्रेमपूर्वक आश्रय देने और सद्व्यवहारसे बन सका था। इमलिये सुधारके अर्थ प्रेम, उपकार और सद्व्यवहारको अपनाना चाहिये, इसकी नितान्त आवश्यकता है । पापीसे पापीका भी सुधार हो सकता है, परन्तु सुधारक होना चाहिये। ऐसा कोई भी पुरुष नही है जो स्वभावसे ही 'अयोग्य' हो परन्तु उसे योग्यताकी ओर लगानेवाला 'योजक' होना चाहिये, उसीका मिलना कठिन है। नीतिकारोने कहा है -
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ । जो जाति अपने किसी अपराधी व्यक्तिको जातिसे खारिज करती है और इस तरह उसके व्यक्तित्वके प्रति भारी घृणा और तिरस्कारके भाव प्रदर्शित करती है, समझना चाहिये कि वह स्वय उसका सुधार करनेके लिये असमर्थहै,अयोग्य है और उसमे योजक-शक्ति नहीं है साथही,इस कृतिके द्वारा वह सर्वसाधारणमें अपनी अयोग्यता और अशक्तिकी घोषणा कर रही है - इतना ही नहीं, बल्कि अपनी स्वार्थसाधुताको भी प्रगट कर रही है । ऐसी अयोग्य और असमर्थ जातिका,