________________
२५८
युगवीर-निबन्धावली महाभुजगशोभांकसंदृष्टवरभूषणा । वृक्षमूलमहास्तंभमाश्रिता वार्तमूलका ॥ २२॥ स्ववेषकृतसंचारा स्वचिन्हकृतभूषणा । समासेन समाख्याता निकाया खचरोद्गताः ॥२३॥ इति भार्योपदेशेन ज्ञातविद्याधरान्तर ।
शोरियतो निज स्थान खेचराश्च यथायथम ।। २४॥" इन पद्योका अनुवाद प० गजाधरलाजीने अपने भाषा हरिवशपुराण'मे निम्नप्रकार दिया है - - "एक दिन समस्त विद्याधर अपनी अपनी स्त्रियोके साथ सिद्धकूट चैत्यालयकी वन्दनार्थ गये । कुमार (वसुदेव) भी प्रियतमा मदनवेगाके साथ चल दिये ॥२॥ सिद्धक्कूटपर जाकर चित्र-विचित्र वेषोके धारण करनेवाले विद्याधरोने सानन्द भगवानकी पूजा की, चैत्यालयको नमस्कार किया एव अपने अपने स्तभोका सहारा लेकर जूदेजुदे स्थानोपर बैठ गये । कुमारके श्वसुर विद्य द्वेगने भी अपनी जातिके गौरिक निकायके विद्याधरोके साथ भले प्रकार भगवानकी पूजा की और अपनी गौरी विद्याप्रोके स्तभका सहारा लेकर बेठ गए । कुमारको विद्याधरोकी जातिके जाननेकी उत्कठा हुई, इसलिये उन्होने उनके विषयमे प्रियतमा मदनवेगासे पूछा और मदनवेगा यथायोग्य विद्याधरोकी जातियोका इस प्रकार वर्णन करने लगी-" ___ "प्रभो । ये जितने विद्याधर है वे सब आर्यजातिके विद्याधर हैं । अब मै मातगजातिके विद्याधरोको बतलाती हूँ आप ध्यानपूर्वक सुने।" - "नीलमेघके समान श्याम नीली माला धारण किये, मातगस्तभ के सहारे बैठे हुए ये मातगजातिके विद्याधर है ॥ १४-१५ ।। मुर्दोकी हड्डियोके भूषणोसे भूषित, भस्म ( राख ) की रेणुप्रोसे मटमैले
१. देखो, सन् १९१६ का छपा संस्करण पृष्ठ २८४, २८५ ।