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युगवीर-निबन्धावली लघुपुत्र-सहित खडी हुई प्रेमभरे शब्दोमे प्रार्थना कर रही है कि 'हे नाथ कुछ थोडासा भोजन तो जरूर कर लीजिये। परन्तु उसे इस
सम्पूर्ण आनन्दकी सामग्रीमे कुछ भी आनन्द और रसका अनुभव नही ' होता, वह बड़ी उपेक्षा, बेरुखी अथवा झ झलाहटके साथ उत्तर देता
है कि तुझे भोजनकी पड़ी है यहाँ जानको बन रही है, दस बज गये, रेलका वक्त हो गया, मुकद्दमेकी पेशी पर जाना है ।।' इससे साफ जाहिर है कि चिन्ता आदिसे अभिभूत होनेपर--फिक्रात वगैरहके गालिब आने पर-बाहरकी बहुतसी सुन्दर विभूति और उत्तमसे उत्तम सामग्री भी मनुष्यको सुखी नही बना सकती-वह प्राय दु खोसे ही घिरा रहता है। अनेक कवियोने तो चिन्ताको चिताके समान बतलाया है। दोनोमे भेद भी क्या है ? एक नुक्त या बिन्दीका ही तो भेद है। उर्द मे लिखिये तो चितापर चितासे एक नुक्ता ( ) ज्यादा पाएगा और हिन्दीमे लिखनेसे एक बिदी अधिक लगानी होगी। परन्तु इस नुक्त या बिन्दीने गजब ढा दिया । चिता तो मुर्दको जलाती है परन्तु चिता जीवितको भस्म कर देती है ।। जिस शरीर रूपी बनमे यह चिता-ज्वाला दावानलकी तरहसे खेल जाती है, उसमे प्रकटरूपसे धुपा नजर न आते हुए भी भीतर ही भीतर धुआँधार रहता है, कॉचकी भट्टोसी जलती रहती है और उससे शरीरका रक्त-मास सब जल जाता है, सिर्फ हाडोका पजर ही पजर चमडेसे लिपटा हुआ शेष रह जाता है । ऐसी हालतमे जीवनका रहना कठिन है, यदि कुछ दिन रहा भी तो उस जीनेको जीना नहीं कह सकते । इसीसे ऐसे लोगोके जीवनपर आश्चर्य प्रकट करते हुए कविराय गिरधरजी लिखते हैं
चिंता ज्वाल शरीर बन दावानल लग जाय ।
१ चिंता चिता समाख्याता बिन्दुमात्रविशेषत । सजीवं दहते चिता निर्जीव दहते चिता ॥