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हम दुखी क्यो हैं ?
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वगैरह में से किसीको अलग कर दूँ, कमरेकी शोभा-सजावट और अपने मनोविनोद दिल बहलाव ) का सामान कम करदू, महमानोकी सेवासुश्रूषामे आनाकानी करने लगू या उसमे कमी कर दूँ, स्त्रियो तथा बच्चा पहनावा बदल या उमे कुछ घटिया करदू, इष्ट मित्रोसे आँखे चुराने लगू, नाटक थियेटरमे जाना या वहाँ खास सीटोका रिजर्व कराना बन्द करदूँ, खाने-पीने की सामग्री जुटानेमे किफायत और अहतियातसे काम लेने लगू औौर या विवाह - शादी वगैरहके खचमे कोई आदर्श कमी करदूँ | गरज, जिस चीज्रको कम करने, घटाने या बदलने वगैरह की बात वह सोचता है उसीसे उसके दिलको धक्का लगता है, चोट पहुँचती है हैसियत अथवा पोजीशन के बिगडने और शान बट्टा लग जानेका खयाली भूत सामने आकर खडा हो जाता है, वह जिस ठाट-बाट, साज-सामान और आन बान से अब तक रहता आया है, उसीमे रहना चाहता है, अभ्यासके कारण वे सब बाते उसकी आदत और प्रकृतिमे दाखिल हो गई है, उनमे जरा भी कमी या तबदीली उसे बहुत ही अखरती है और इस तरह वह दुख ही दुख महसूस (अनुभव) करता है । दूसरे शब्दोमे यो कहना चाहिये कि अधिक धन के नशेमे जिन जरूारेयातको फिजूल बढा लिया था वे ही अब उसके गले का हार बनी हुई है, उन्हें न तो छोडे सरता है और न पूरा किये बनता है, दोनो पाटोके बीच जान प्रजब
जब अथवा सकटापन्न है । और इससे साफ जाहिर है कि जरूरियातको फिजूल बढा लेना अपने हाथो खुद दु खोको मोल ले लेना है - जो जितना ज्यादा अपनी जरूरियातको बढाता है वह उतना ही ज्यादा अपनेको दुखोके जालमे फँमाता है ।
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