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हम दुखी क्यो है ?
२६५ चलेगा, तभी दुख मिटेगा। और इसलिये हर जायज नाजायज तरीकेसे-उचिताऽनुचितरूपसे हम रुपया पैदा करनेके पीछे पडे हुए हैं, उसीकी एक धुन और उसीका एक खब्त (पागलपन) हमारे सिरपर सवार है और उसकी सम्प्राप्तिमे इतना सलग्न रहना होता है कि हमे अपने तन-बदनकी भी पूरी सुध नहीं रहती। फिर इन बातोको तो कौन सोचे और कौन उनपर गहरा विचार करे कि 'हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, क्यो आए है, कैसे आए हैं, कहाँ जायेंगे, कब जायेंगे कैसे जायँगे, हमारा प्रात्मीय कर्तव्य क्या है, उसे पूरा करनेके लिये हमने कोई कार्रवाई की या नही,और हमे इस मनुष्य-शरीरको पाकर ससारमे क्या क्या काम करने चाह्येि' । इन सब बातोको सोचने और विवारनेका हमारे पास समय ही नही है । हमको इतनी फुर्सत कहाँ जो इस प्रकारके विचारोंके लिए भी कुछ वक्त दे सके या ऐसे विचारोके साहित्यको ही पढ-सुन सके ? हमारी इधर प्रवृत्ति ही नहीं होती । गरज यह कि अपने सुखकी सामग्रीको एकत्र करने अथवा जुटानेके लिये हमे रात-दिन खडी अँगुलियो नाचना पड़ता है और पूर्णरूपसे उसीमे सलग्न रहना होता है। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी-धन-दौलत और भूठी इज्ज़त पैदा करनेके यत्नमे इतना अधिक तत्परता होते हुए और उसे बहुत कुछ प्राप्त करते हए भी हमे सूख नहीं मिलता शान्ति नसीब नहीं होती। चारो तरफ जिधर भी प्रॉख उठाकर देखते हैं दुख ही दुख नज़र प्राता है-हमारे स्वजन परिजन, इष्ट मित्र सगे सम्बन्धी, यार दोस्त, अडोसी-पडोसी, नगर और देहातके प्रात्र सभी लोग दुख-दर्दसे पीडित है, हर ओरसे दुखदर्दभरी आवाजे ही सुनाई पड़ती हैं। अपना ही दुख दूर नहीं होता तब दूसरोके दुखको मालूम करने और दूर करनेकी फिक्र कौन करे ? कौन किसी पर दया अथबा रहम करे ? कौन किसीको मदद करे ? और कैसे कोई किसीके दुखदर्दमे काम आवे ? हर एकको अपनी अपनी पड़ी है, अपने ही मतलबसे