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युगवीर-निबन्धावली
हमें स्पष्टताके साथ यह जाननेकी जरूरत है कि हमारा दुख क्यों बढ़ रहा है ? वास्तवमे जो कारण हमारे दु.खके बढनेका है वही हममेंसे धर्मक उठ जानेका है । एकके मालूम होनेपर दूसरेको मालूम करनेकी जरूरत नही रहती। एक सवालके अच्छी तरहसे हल हो जाने पर दूसरा खुद-ब-खुद (स्वयमेव) हल हो जाता है, और इसलिये हमे वह खास कारण मालूम करना चाहिये जिसकी वजहसे हमारा दूख बढ रहा है या हममे से धर्म उठ गया और उठता जाता है।
आवश्यकताओंकी वृद्धि जहाँ तक मैंने इस मामलेपर गौर तथा विचार किया और उसके हर पहलू पर नज़र डाली, हमारे दु खोका प्रधान कारण सिवाय इसके और कुछ प्रतीत नही होता कि 'हमने अपनी ज़रूरियातकोआवश्यकतामोको-फिजूल बढा लिया है, वैसा करके अपनी आदत, प्रकृति और परिणतिको बिगाड़ लिया है और दिनपर दिन उनमें और वृद्धि करते चले जाते हैं । फिजूलकी जरूरियातका बढा लेना ऐसा ही है जैसा कि अपनेको जजीरोसे बाँधते जाना । एक हाथी परमे जजीरके पड जानेसे ही पराधीन हो जाता है - अपनी इच्छानसार जहाँ चाहे घूम-फिर नहीं सकता-उसको वह सुख नसीब नहीं होता जो स्वाधीनतामे मिलता था । पराधीनतामे सुख है ही नहीं। कहावत भी प्रसिद्ध है-'पराधीन सुपनेहु सुख नाही' । फिर जो लोग चारो तरफसे ज़जीरोमे जकडे हुए हो-फिजूलकी जरूरियातके बन्धनोमे बँधे हो-उनकी पराधीनताका क्या ठिकाना है ? और उन्हे यदि सुख न मिले-शॉति नसीब न हो--तो इसमे आश्चर्य तथा विस्मयकी बात ही क्या है ? व्यर्थकी जरूरियातको बढ़ा लेना वास्तवमे दु खोको निमत्रण देना ही नहीं, उन्हे मोल ले लेना है।
एक मनुष्य छह सौ रुपये मासिक वेतन ( तनख्वाह ) पाता है